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क्षुदरोगाधिकारः
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मूत्र कृच्छ्र के सदृश लक्षण पाये जाते हैं । मल के अवरोध से वात कुपित होकर मूत्रकृच्छ्र को उत्पन्न करता है। उस में शूल व आध्मान [अफराना ] होते हैं । अश्मरीज मूत्रकृच्छ्र का लक्षण, अश्मरीरोग के प्रकरण में कह चुके हैं । शर्कराज मूत्रकृच्छु का अश्मरीज के सदृश लक्षण है । लेकिन इतना विशेष है कि अश्मरी [ पित्तसे पचकर] वायुके आघात से जब टुकडा २ रेतीला हो जाता है इसे शर्करा कहते हैं। जब यह मूत्र मार्ग से [ मूत्रके साथ ] बाहर आने लगता है मूत्र अत्यंत कष्ट से उतरता है तो हृदय में पीडा, कम्प [ कांपना ] शूल, अशक्ति, अग्निमांद्य और मूर्छा होती है । ६०।६१ ॥
मूत्रकृच्छचिकित्सा. कथितमाविघातचिकित्सितं । प्रकथयाम्यधिकाखिलभेषजैः । प्रतिदिनं सुविशुद्धतनोः पुनः । कुरुत बस्तिमिहोत्तरसंज्ञितम् ॥ ६२॥
भावार्थ:--उपरोक्त मूत्रकृच्छ रोगकी चिकित्सा का वर्णन, उनके योग्य समस्त औषधियों के साथ २ करेंगे । प्रतिदिन रोगीके शरीर को शोधनकर पुनः उत्तर बस्ति का प्रयोग करना चाहिये ॥ ६२ ॥
मूत्रकृच्छ्रनाशक योग. त्रपुसबीजककल्कमिहाक्षसम्मितमथाम्लसुकांजिकयान्वितं । लवणवर्गपपि प्रपिचेन्नरःसभयमनविघातनिवारणम् ॥ ६३ ॥
भावार्थ:--खीरे के बीज के एक तोले कल्क को श्रेष्ठ खट्टी कांजी के साथ एवं लवण वर्ग को कांजी के साथ पीनेसे, मनुष्य का भयंकर मूत्रकृच्छ भी शांत होता है ॥ ६३ ॥
मधुकादिकल्क. मधुककुंकमकल्कमिहांबुना । गुडयुतेन विलोड्य निशास्थितं । शिशिरमाश पिबन् जयतीद्धमप्यखिलमूत्रविकारमरं नरः ॥ ६४ ॥
भावार्थ:----ज्येप्टमधु व कुंकुम ( केशर ) के कल्क में गुड मिलाकर पानी के साथ बिलोना चाहिये । फिर उसे रात्री में वैसा ही रखें। अच्छीतरह ठण्डा होने के बाद [ प्रातःकाल ] उसे पीनेसे समस्त मूत्रविकार दूर हो जाते हैं ॥ ६४ ॥ .
दाडिमदि चूर्ण. सरसदाडिमबीजसुजीरनागरकणं लवणेन सुचूर्णितं ।।.. प्रतिदिनं वरकांजिकया पिबे- । दधिकमूत्रविकाररुजापहम् ॥ ६५ ॥
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