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(४२४)
कल्याणकारक
भावार्थ---- रसयुक्त दाडिम ( अनार ) का बीज, जीरा, शुंठी, पीपल व लवण इन को अच्छीतरह चूर्ण कर, उसे प्रतिदिन कांजी में मिलाकर पीना चाहिये। वह अधिक मूत्रकृच्छ्र रोग को भी दूर करता है ॥ ६५ ॥
कपोतकादि योग. अपि कपोतकमूलयुतत्रिकंटकसुगृध्रनखांघ्रिगणः श्रितम् ॥ कुडुवयुग्मपयोवुचतर्गुणं प्रतिपिबेत्सपयः परिपेषितम् ॥ ६६ ॥
भावार्थः- कपोतक [ सफेद सुर्मा ] पीपलामूल, गोखरू, कंटकपाली वृक्ष का जड, इन से चतुर्गण पानी डालकर सिद्ध किये हुए दूध को अथवा उपरोक्त औषधियोंको दूधके साथ पीसकर (मूत्रकृच्छ्र रोग को नाश करने के लिए ) पीना चाहिए ॥६६॥
तुरगादिस्वरस. तुरगगदर्भगारेटजं रसं कुडुबमात्र मिह प्रपिबेन्नरः ॥ लवणवर्गयुतां त्रिफलां सदा । हिमजलेन च मुत्रकृतामयम् ।। ६७ ॥
भावार्थ:-अश्वगंध, सफेद कमल, दुर्गव खैर, इनके रस को कुडुब प्रमाण पीना चाहिये । तथा लवणवर्ग व त्रिफला के चूर्ण को ठंडे जलके साथ मिलाकर पीना चाहिये, जिससे मूत्रा रोग दूर होता है ॥ ६७ ॥
मधुकादि योग. अथ पिवेन्मधुकं च तथा निशा- । ममरदारूनिदिग्धिकया सह ॥ त्रुटियनामलकानि जलामयी । पृथगिहाम्लपयोऽक्षतधावनैः ।। ६८ ॥ :
भावार्थ-- मुलेठी, हलदी, देवदारु, कटेली, छोटी इलायची, नागरमोथा, आंवला, इन के चूर्ण व कल्क को कांजी, दूध, चावल का धोवन, इन किसी एक के साथ पीना चाहिये ॥ ६८ ॥
स्वरसमामलकोद्भवमेव वा । कुडुवसम्मितमिक्षुरसान्वितम् ॥ त्रुटिशिलाजतुमागाधिकाधिकं गुडजलं प्रपिबेत्स जलामयी ॥ ६९ ॥
भावार्थ-- मूत्रामयसे पीडित रोगी को १६ तोले आंवले का रस, अथवा उसमें ईख का रस मिलाकर पीना चाहिये। एवं छोटी इलायची शिलाजीत पीपल इन को गुडजल के साथ पीना चाहिये ॥ ६९ ॥
सत्रुटिरामठचूर्णयुतं पयो । घृतगुडान्वितमत्र पिनरः ॥ विविधमूत्रविघातकृतामया- । नधिकशुक्रमयानपि नाशयेत् ॥ ७० ॥ रकत इति पाठांतरं।
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