________________
कल्याणकारके
दीखने लगजाने पर, वैद्यको उस प्रवेश करायी गयी सलाई को, क्रमशः निकालना चाहिये । पश्चात् चित सुलाये हुए उस रोगीको कटुरूक्षगुणयुक्त, कफन श्रेष्ठ औषधियोंसे सदैव नस्य देना हितकर है ॥ २७९ ॥ २८० ॥ २८१ ॥
छामांबुना कतकनक्तफलद्वयं , वा। पिष्ट तदिष्टमिह दृष्टिकरांजनं स्यात् ॥ रक्ताख्यचदनमपि क्रमतो निघृष्टं ।
सौवीरवारिघृततैलफलाम्लतः ॥ २८२ ॥ भावार्थ:---बकरेके मूत्रके साथ कतक फल, करज फल, इस को पीसकर अंजन तयार करें । यह अजन आंख को बनाने वाला है । कांजी, पानी, वृत, तेल अम्लफलोंके रस व तक के साथ रक्त चंदनको धीरे धीरे विसकर अंजन करें तो आंखका अत्यंत हित होता है ॥ २८२ ॥
शलाका निर्माण. सत्तारताम्रगजहेमवराः शलाकाः । श्लक्ष्णा रसेद्रबहुवारकृतमलेपाः ॥ सौवीरभावनीवशुद्धतरातिशीताः ।
संघट्टनाद्विमलदृष्टिकरा नराणां ॥ २८३ ।। भावार्थः-दृष्टि में रगडने व अंजन लगाने के लिये, चांदी, ताम्बा, सांसा, व सोने की चिकनी शलाका बनानी चाहिये । उस पर पारा बहुबार [ लिसोडा ] का लेपन करके गरम करें और उसे, कांजी में बुझाये । इस प्रकार विशुद्ध ब शीत उस शलाका को मनुष्यों की आंख पर रगडने से आंखें निर्मल हो जाती हैं ॥ २८३ ॥
मा
, लिंगनाशमें त्रिफला चूर्ण. चूर्ण यत्रिफलाकृतं तिलजसंमिश्रं च वातोद्भवे । श्लेष्मोत्थे तिमिरे घृतेन सहितं पित्तात्मके रक्तजे ॥ खण्डेनातिसितेन पिण्डितमिदं संभक्षितं पण्डितै-।
दृष्टिं तुष्टिमतीव पुष्टिमधिकं वैशिष्टयमप्यावहेत् ॥ २८४ ॥ भावार्थ:-बातिक लिंगनाशमें, त्रिफलाके चूर्णको तिलके तैल के साथ, कफज लिंगनाशमैं धी के साथ, पित्त व रक्तज लिंगनाशमें सफेद खांड के साथ मिलाकर. सेवन करने से नेत्रमें प्रसाद, पुष्टि व वैशिष्टय उत्पन्न होता है ॥ २८४ ।।... ... .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org