________________
(१०८)
कल्याणकारके
भावार्थ:-सर्वदोषों से दृषित दुष्ट प्रतिश्यायरोग उष्ण, क्षार, कटु औषधि वर्ग से पकाया हुआ घृत, अवपीडन, नस्य व अन्य तक्षिण नस्य, उष्णतेक, उष्णकषाय जलादिक में अवगाहन, अवलेह, गण्डप, कवलग्रहण, बहुधूम प्रयोग व लेप से शीघ्र उपशम होता है ॥ २९ ॥
प्रतिश्याय का उपसंहार. इति प्रतिश्यायमहाविकारान् । विचार्य दोषक्रमभेदभिन्नान् ॥ प्रसाधयेत्तत्मतिकारमार्ग
रशेषभैषज्यविशेषवेदी ॥ १०० ॥ भावार्थ:--३स प्रकार उपर्युक्त प्रकार से भिन्न २ दोषोंसे उत्पन्न प्रतिश्याय महारोगों को अच्छी तरह जानकर संपूर्ण औषधियों को जानेनेवाला वैद्य उन दोषोके नाश करने वाले प्रयोगों के द्वारा चिकित्सा करें ॥१०० ॥
अंतिम कथन। इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः॥
उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो। - निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ॥ १०१॥ भावार्थ:-- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्य व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनभूत सावनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है। साथमें जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १०१ ॥
इत्यग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे
क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितः षोडशः परिच्छेदः ।.
इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक अंध के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाविधिभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित
भावार्थदीपिका टीका में क्षुद्ररोगाधिकार नामक
सोलहवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org