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क्षुद्ररोगाधिकारः।
कृमिघ्न योग. अपुषष्टमिहाष्टदिनांतरम् । दधिरसेन पिवेस्क्रिमिनाशनम् ॥ . अथ कुलत्थरसं सतिलोद्भवं । त्रिकटुहिंगुरिटंगविमिश्रितम् ॥ १९ ॥
भावार्थ:-दही के तोड के साथ इंद्रायण के कल्क को मिलाकर आठ दिन में एक दफे पीना चाहिये । उससे क्रिमिनाश हो जायगा । तथा कुलथीके रस या तिल के तेल में त्रिकटु, हिंग, वायविडंग को मिलाकर लेना भी हितकर है ॥ १९ ॥
पिप्पलीमूल कल्क. सुरसजातिरसेन च पशितं । प्रवरपिप्पलिमूलमजांबुना ॥ प्रतिदिनं प्रापिबेत्परिसर्पवान् । कटुकतिक्तगणैरशनं हितम् ॥ २० ॥
भावार्थः-कृमिरोग से पीडित रोगीको तुलसी व जाई के रस के साथ पिसा हुआ पीपली मूल को, बकरे के मूत्र के साथ प्रतिदिन पिलाना और कटुतिक्तगणोक्त द्रव्यों से भोजन देना अत्यंत हितकर होता है ।। २० ॥
__ रक्तज कृमिरोग चिकित्सा. कफपुरीषकृतानखिलान् जये- । बहुविधैः प्रकटीकृतभेषजैः ।। रुधिरसंजनितान्क्रिमिसंचयान् । कथितष्ठचिकित्सितमार्गतः ॥२१॥
भावार्थ:-कफज और मलज क्रिमियोंको पूर्वोक्त अनेक औषधियों के प्रयोगसे जीतना चाहिये । रक्तमें उत्पन्न क्रिमिसमूहोंको कुष्ठरोगकी चिकित्साके अनुसार जीतना चाहिये ॥ २१ ॥
कामरोग में अपथ्य. दधिगुडेक्षरसाम्रफलान्यलं । पिातिदग्धगणान्मधरानरसान् । सकलशाकयुताशनपानकान् । परिहरेत्क्रिमिाभिः परिपीडितः ॥२२॥
भावार्थ:-क्रिमिरोगसे पीडित मनुष्य दही, गुड, ईखका रस, आम इत्यादि प.ल, सर्व प्रकार के दूध, मांस व मधुररस, सर्व प्रकार के शाक से युक्त भोजन पानको वर्जन करें ॥ २२ ॥
अथ अजीर्णरोगाधिकारः ।
आम. विदग्ध, विष्टब्धाजीर्ण लक्षण. पुनरजीर्णविकल्पमपीष्यते । मधुरमन्नमिहाममथाम्लताम् ॥ उपगतं तु विदग्धमतीव रुग् । मलनिरोधनमन्यदुदीरितम् ॥२३॥
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