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क्षुद्ररोगाधिकारः ।
विशुचिका में दहन व अन्य चिकित्सा.
दहनमंत्र हितं निजपाणिषु । प्रबलदातयुतातिविषूचिका - । प्रशमनाय महोष्णगुणैौषधानहिमतोययुतान्परिपानतः ॥ ३६ ॥
भावार्थ:- प्रबल वातके वेगसे युक्त विकारसे उत्पन्न विषूचिका रोग को शमन करने के लिये, पाणि स्थान में जलाना चाहिये । एवं महान् उष्ण औषधियों को उष्णजल में मिलाकर पिलाना भी हितकर है ॥ ३६ ॥
अजीर्ण का असाध्य लक्ष्ण.
रसनदंतनखाधर कृष्णता । वमनताक्षिनिजस्वरसंक्षयः ।
स्मृतिविनाशनता शिथिलांगता । मरणकारणमेतदजीर्णिनाम् || ३७ ॥ भावार्थ:- अजीर्ण रोग में जीभ, दांत नख, ओंठ का काला पड जाना, वमन विशेष होना, आंखे अंदर घुस जाना, स्वरनाश होना, स्मृतिक्षय होना व अंगशिथिल होना, यह सब मरण के कारण समझना चाहिये अर्थात् ये लक्षण प्रगट होयें तो रोगी शीघ्र मरता है ॥ ३७ ॥
मूत्र व योनिरोग वर्णन प्रतिज्ञा..
अथ च मूत्रविकारकृतामयानधिक योनिगतान्निजलक्षणान् । प्रवरनामयुताखिलभेषजैः । प्रकथयामि कथां विततक्रमैः ॥ ३८ ॥
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भावार्थ:-- यहां से आगे मूत्रविकार से उत्पन्न रोग और योनि रोगों को, उन के लक्षण, उत्कृष्ट नामको धारण करनेवाले श्रेष्ठ सम्पूर्ण औषधियोंके साथ २ क्रम से वर्णन करेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं
३८ ॥
मुत्रघातादिकारः । वातकुण्डलिका लक्षण.
स्वजल वेगविघातविदूषितविरविरूक्षवशादपि वस्तिज - । श्चरति मूत्रयुतो मरुदुत्कटः बलवेदनया सह सर्वदा ॥ ३९ ॥ सृजति मूत्रमसौ सरुजं चिरान्नरवरोल्पमतोल्पमतिव्यथः । पवनकुण्डलिकाख्यमहामयो भवति घोरतरोऽनिलकोपतः ॥ ४० ॥ भावार्थ:--मूत्र के वेग को धारण करने व रूक्ष पदार्थों के सेवन करने से, वस्तिगत प्रबल वात प्रकुपित होकर, मूत्र के साथ मिलकर बस्ति में पीडा करते हुए,
१ मूत्रावरोध.
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