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(३८८ )
कल्याणकारके
भावार्थ:-( दोष भेदानुसार ) वात आदि दोषों से, मुख का रस विपरीत (जायका खराब ) हो जाता है, इसे विरस कहते हैं। इस रोग में तत्तदोषनाशक व मुख के रससे विपरीतरससे युक्त औषधि से सिद्ध कषायों से मुखको धोना चाहिये । एवं अनुकूल दंतुन से दंतधावन योग्यऔषविसे कवलधारण, गण्डूष व शिरोविरेचन कराना हितकर होता है ॥२७॥
अथ तृष्णारोगाधिकारः।
तृष्णानिदान. दोषदूषितयकृतिलहया सं- । पीडितस्य गलतालुविशोषात् ॥ जायते बलवती हृदि तृष्णा । सा च कास इव पंचविकल्पा ॥ २८ ॥
भावार्थ:-जिसका यकृत् व प्लीहा ( जिगर-तिल्ली ) दोषोंसे दूषित होता जाता है, ऐसे पुरुष का गल व तालु प्रदेश सूख जानेसे हृदय में बलवती तृष्णा (प्यास) उत्पन्न होती है । इसका नामक तृष्णा रोग है । खांसी के समान इसका भी भेद पांच हैं ॥२८॥
दोषजतृष्णा लक्षण. सर्वदोषनिजलक्षणवेदी। वेदनाभिरुपलक्षितरूपाम् ।। साधयेदिह तृषामभिवृद्धां । त्रिप्रकारबहुभेषजपानः ॥ २९ ॥
भावार्थ:----सर्वदोषोंके लक्षण को जानने वाला वैद्य नाना प्रकार की वेदना. ओंसे, जिसका लक्षण प्रकटित हैं ऐसी =ढी हुई, तृष्णारोग को तीन प्रकारकी औष-- धियों के पान से साधन करना चाहिए । सारांश यह है कि वातादि दोषजन्य तृष्णा को तत्तदोषोंके लक्षण से [ यह वातज है पित्तज है आदि जानकर, उन तीन दोर्षों को नाश करनेवाली तीन प्रकार की औषधियों से चिकित्सा करनी चाहिए ॥ २९॥
क्षतजक्षयजतृष्णा लक्षण. या क्षतात् क्षतजसंक्षयता वा । वेदनाभिरथवापि तृषा स्यात् ॥... पंचमी हृदि रसक्षयजाता-। नैव शाम्यति दिवा च निशायाम् ॥३०॥
भावार्थ:-शस्त्र आदि से शरीर जखम होने पर अधिक रक्तस्रावसे अथवा अत्यधिक पीडा के कारण से तष्णा उत्पन्न होती है । इसे क्षतज तृष्णा कहते हैं । रक्त
१ जसे कि कफोद्रेक से मुख नमकीन, पित्तोद्रेक से खट्टा कडुआ, वातोद्रेक से कषैला होता है।
२ वातज, पित्तज, कफज, क्षतज, अयज, इस प्रकार तृष्णाका पांच भेद हैं ।
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