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क्षुद्ररोगाधिकारः
(३७९) पकैश्चामलकीफलैरपि शतावर्याश्च मूलैश्शुभैः । सम्यक्पायसमेव गव्यघृतसंयुक्तं सदा सेवितं ॥ साक्षी पक्षिपतेरिवाक्षियुगले दृष्टिं करोत्यायताम् ।
वृष्यायुष्ककरं फलत्रयरसः शीतांबुपानोत्तमम् ॥ २८५ ॥ भावार्थ:--पके हुए आंवलेका फल, व शतावरीके जडसे अच्छा खीर बनाकर, उसमें गांयका घी मिलाकर सदा सेवन करें तो दोनों आंखें गरुडपक्षी के आंख के समान तीव्र होती हैं। त्रिफले का रस व ठण्डा पानी पीना वृष्य व आयुवेद्रिकारक हैं एवं दृष्टि को विशाल बनाता है ॥२८५il
मौाद्यंजन. मौवित्रीकुमारीस्वरस-परिगतं सत्पुराणेष्टकानां । पिष्टं संघृष्टमिष्टं मलिनतरबृहत्कांस्यपात्रद्वयेऽस्मिन् । तैलाज्याभ्यां प्रयुक्तं पुनरपि बहुदीपांजनेनातिमिश्रं ॥ विश्वाभिष्यंदकोपान् शमयति सहसा नेजान् सर्वरोगान् ॥२८६॥
भावार्थ:--मेढासिंगी, हाडजोड, कुमारी इन के स्वरस से भावित पुराना 'इष्टक [ एरण्डवृक्ष अथवा ईंट ) की पिठीको मलिन कांसे के दो वर्तन में डालकर खूब -घिसे और उस में तैल, घी, दीपांजन ( काजल ) मिलादेवें । इस अंजनको आंजनेसे वह सम्पूर्ण अभिष्यंदरोग एवं अन्य नेत्रज सर्व रोगों को शीघ्र ही शमन करता है ।। २८६ ।।
- हिमशीतलांजन. कपूरचंदनलतालवलीलवंग-। ककोलजातिफलकुंकुमयष्टिचूर्णैः ॥ वर्तीकृतैः सुरभिगव्यघृतप्रदीप्तं । शीतांजनं नयनयोहिमांतलाख्यम् ॥२८७
भावार्थ:----कपूर, चंदन, लता-कस्तूरी, हरपाररेवडी, लवंग, कंकोल, जायफल, केसर व मुलहटी इनका चूर्णकर फिर बत्ती बनाना चाहिये। उस बत्तीको सुगंधित गायके . घीसे जलाकर अंजन तैयार करें। यह हिमर्शातल नामक अंजन नेत्रोंके लिये हितकर है और शीतगुणयुक्त है ॥ २८७ ।।
सौवर्णादिगुटिका. सौवर्ण ताम्रचूर्ण रजतसमधृतं मौक्तिकं विद्रुमं वा ।
१ आंवला और शतावरी को महीन चूण बनाकर दूध व शक्कर के साथ पकावें । अथवा आंवला और शतावरीके रस को दूध शकर के साथ पकाना चाहिये । यही पायस है।
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