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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(३.८१)
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की रक्षा है अर्थात् आंखों के रक्षण के लिए सूक्ष्म अक्षरोंका बांचना, तीन प्रकाशकी तरफ अधिक देखते रहना हितकर नहीं है, ऐसा समंतभद्राचार्यने कहा है ॥२९१ ॥
अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहाबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो।
निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ।। २९२ ॥ भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उट रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है। साथमें जगत्का एक मान्न हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ २९२ ॥
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे 'क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितः पंचदशः परिच्छेदः ।
इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित
भावार्थदीपिका टीका में क्षुद्ररोगाधिकार नामक ...
पंद्रहवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
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