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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(३७७) पक्षप्रकोप में लेखन आदिकर्म. संलिख्य तापहरणं दहनेन दग्ध्वा । . चोत्पाट्य वा प्रशमयेदिह पक्ष्मकोपम् ॥ दृष्टिप्रसादजनकैरपि दृष्टिरोगान् ।
साध्यान्विचार्य सततं समुपक्रयेत ॥ २७८ ॥ भावार्थ:-उपरोक्तविधि से यदि पक्षमकोप शांत न हो तो उसको लेखनकर्भ [ खुरच ] कर वा अग्निसे जलाकर [ अग्निकर्म कर ] अथवा उत्पाटन कर उपशम करना चाहिये जिससे पश्मकोप से उत्पन्न संताप दूर होता हैं । एवं साध्यदृष्टिरोगों को अर्थात् पक्ष्मकोपको नेत्राप्रसाद करनेवाले औषधियों से, हमेशा विचारपूर्वक चिकित्सा करें ॥ २७८॥
कफजालंग नाशमै शस्त्रकर्म. तल्लिंगनाशमपि तीनकफप्रजातं । ज्ञात्वा विमृद्य विलयं सहसा व्रजेत्तम् ।। स्वां नासिकामभिनिरीक्षत एव पुंसः । शुक्लपदेशसुषिरं सुविचार्य यत्नात् ॥ २७९ ॥ छिद्रे स्वदैवकृतलक्षणलक्षितेऽस्मिन् । विध्येत् क्रमक्रमत एव शनैश्शनैश्च ॥ सुश्लक्ष्णताम्रयवक्रशलाकया ती-। वोत्सिंहनादमनुधुक्कफमुल्लिखेत्तम् ॥ २८० ॥ दृष्टे पुरःस्थितसमस्तपदार्थजाते। तामाहरेत्क्रमत एव भिषक शलाकां ॥ उत्तानतश्शयनमस्य हितं सदैव ।
नस्यं कफघ्नकटुरूक्षवरौषधैश्च ॥ २८१ ॥ भावार्थ:-लिंगनाश रोग [ तिमिर ] को मर्दन करनेपर यदि वह शीघ्र ही विलय हो तो, उसे तीन कफसे उत्पन्न लिंगनाश समझकर उस रोगीको, अपने नाक की तरफ देखने को कहें । जब पैसे ही देखते रहें तो, उसका आंखके शक्लप्रदेश और छिद्र को प्रयत्न पूर्वक विचार करके, उस दैवकृत छिद्र में, अत्यंत चिकनी, ताम्र से बनायी हुई, यववक्त्रनामक शलाका से, क्रमशः धीरे २ वेधन करें। और छींक कराकर कपरका निकालें। आंग्बके सामने समान पदार्थ स्थित होने पर अर्थात
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