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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(३६९)
भावार्थ:-छह प्रकार के काच रोग ( जिसके होते हुए भी, मनुष्यको थोडा बहुत दीखता हो ) और एक पक्ष्मकोप इस प्रकार सात रोग याप्य होते हैं । वात उत्पन्न चार [ हतादिमंथ, निमेष, गम्भीरिका और वातहतवर्म ] रोग, रक्त से उत्पन्न चार [क्तस्राव, अजकजात, शोणितार्श, सत्रणशुक्र ] रोग, सन्निपातज चार (पूयस्राव, नकुलाध्य, अक्षिपाकात्यय, अलजी) रोग, कफसे उत्पन्न कफस्राव नामक एक रोग,पित्तज हस्वजात्य,जलस्राव ये दो रोग इस प्रकार कुल १५ रोग असाध्य होते हैं, इसलिए कुशल वैद्य उन को छोड देवें । इसी प्रकार आगंतुक दो रोग भी कदाचित् असाध्य होते है। उस अवस्थामें इन को भी छोडें ॥ २५२ ॥
अभिन्ननवाभिघातचिकित्सा. नेत्राभिघातजमभिन्नमिहावलंब
मानं निवेश्य घृतलिप्तमतः प्रबंधैः ॥२५३॥ भावार्थ-- नेत्रका अभिघात होकर उत्पन्न नेत्ररोगमें यदि नेत्र स्वस्थानसे भिन्न नहीं हुआ हो और उसीमें अवलंबित हो तो घृतलेपन कर पट्टी बांधकर उपचार करना चाहिये ।। २५३ ॥
भिन्ननेनाभिघातचिकित्सा. मिनं व्यपोह्य नयन प्रविलंबमानं । पागुक्तसबणविधानत एव साध्यम् ॥ संस्वेदनप्रबललेपनधूमनस्य
संतपणैरभिहतोऽप्युपशांतिमेति ॥२५४॥ भावार्थ-यदि भिन्न होकर उसमें लगा हुआ हो तो उसको अलग कर पूर्वोक्त बणविधान से उसे साध्य करना चाहिये । साथमें स्वेदन, लेपन, धूमपान, नस्य व संतर्पण आदिके प्रयोगस भी उपरोक्त रोग उपशांतिको प्राप्त होता है ॥२५४॥
वातजरोगचिकित्साधिकारः। वातादिदोपजनेत्ररोगोंकी चिकित्सावर्णनप्रतिक्षा.
मारुतपर्यय, व अन्यतोवातचिकित्सा वातादिदोषजनितानखिलाक्षिरोगाम् । संक्षेपतः शमयितुं सुविधि विधारणे ॥
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