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क्षुद्ररोगाधिकारः।
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भावार्थ:-नेत्र रोगोंमें ग्यारह रोग छेद्य (छेदन कर्म करने योग्य ) पांच रोग, भेद्य [ भेदन योग्य ] नौ रोग लेखन करने [ खुरचने ] योग्य, एवं पंद्रह रोग, व्यध्य [ वेधन करने योग्य ] होते हैं । बारह तो शस्त्र क्रियाके योग्य नहीं हैं अर्थात् औषधि से साधने योग्य हैं । सात रोग तो ( स्नेहन आदि क्रियाओंसे ) याप्य होते हैं। पंद्रह रोग तो छोडने योग्य हैं, चिकित्सा करने योग्य नहीं है । आगंतुक दो रोग कदा. चित् याप्य कदाचित् असाध्य होते हैं !! २४५॥
छद्य रोगोंके नाम. अर्याणि पंच पिटका च सिरासमुत्था । जालं शिराजमपि चार्बुदमन्यदर्शः ॥ २४६ ॥ शुष्क स्ववर्त्म निजपर्वणिकामयेन ।
छेद्या भवंति भिषना कथिता विकाराः। भावार्थ:-पांच प्रकार के अर्म, शिराजपिडिका, शिराजाल, अर्बुद, शुष्काश, अर्शोवर्म, पर्वणी, ये ग्यारह रोग, वैद्यद्वारा छेदने योग्य होते हैं अर्थात छेदन करने से इनमें आराम होता है ॥ २४६॥
भेध रोगोंके नाम. ग्रंथिःक्रिमिप्रभव एक कफोपनाहः ।
स्यादंजनाक्षिलगणो बिसवम॑ भेद्याः ॥ २४७॥ भावार्थ:---कृमिग्रंथि, कपनाह, अंजननामिका, लगण, बिसवम, ये पांच रोग भेदन करने योग्य होते हैं ।। २४७॥
लेख्य रोगोंके नाम. क्लिष्टाबबंधवहलाधिककर्दमानि । श्यावादिवर्ती सहशर्करया च कुंभी-॥ न्युत्संगिनी कथितपाथकिका विकारा।
लेख्या भवंति कथिता मुनिभिः पुराणैः ॥ २४८ ॥ भावार्थ:---क्लिष्टयम, बद्रवर्म ( वावबंध , वइलवम, कर्दमयम, (वर्मकर्दम) श्याववर्म, शर्करावर्म, कुंभिका, उत्संगिनी, पोथकी, ये सेग लेखन क्रिया करने योग्य हैं अर्थात् लेखनक्रियासे साध्य होते हैं ऐसा प्राचीन महर्षियोंने प्रतिपादन किया
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