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कल्याणकारके
प्रस्तादिप्रथितमथार्म पाकयुग्मः । श्यावाख्यं बहलसुकर्दमार्शसाम् ॥ यद्वामन्यद्विससहितं च शर्कराख्यं । शुक्लार्बुदमलस स्वपूयपूर्वः ॥२४२॥ उत्संगिन्यथ पिटका व कुंभपूर्वा । साध्यास्तेषु विदितसर्वदोषजेषु ॥ बाह्यौ यौ प्रकटनिमित्तजानिमित्तजौ । साध्यौ वा भवत्यसाध्यलक्षणम् वा ।। २४३ ॥
भावार्थ:-- सान्निपातिक नेत्र रोगों में वत्मीयबंध, अक्लिन्नवर्त्म, शिराजपिडिका, नार्म, आधिमांसा, प्रस्तार्यर्म, सशोथ अक्षिपाक, अशोथ अक्षिपाक, श्यःक्वर्त्म, नहलधर्म, कर्दमवर्त्म, अशोवर्त्म, बिसवर्त्म, शर्करावर्त्म, शुक्रार्श, अर्बुद, प्यालस, उत्संगिनी और कुम्भिका, इतने [१९] रोग साध्य होते हैं । निमित्तजन्य व अनिमित्तजन्य ये आगंतुक रोग, कभी तो साध्य होते हैं और कभी असाध्य होते हैं ॥२४१--२४३॥
नेत्ररोगोंका उपसंहार.
षट्सप्ततिः सकलनेत्रगदान्विकारान् । ज्ञात्वात्र साध्यमथ याप्यमसाध्यमित्थं ॥ छेद्यादिभिः प्रबलभेषजसंविधानैः । संयोजयेदुपशमक्रियया च सम्यक् ॥ २४४ ॥
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भावार्थ:- उपर्युक्त प्रकार से छाहत्तर प्रकार के नेत्र विकारोंके साध्य, असाध्य वयाप्य स्वभावको अच्छीतरह जानकर छेदनादिक क्रियावोसे व प्रबल औषधियोंके प्रयोगसे, उपशमन क्रिया से उनकी अच्छीतरह चिकित्सा करें ॥ २४४ ॥
चिकित्सा विभाग.
छेद्या भवति दश चैक इहाक्षिरोगा । nurse पंचनव चान्यगदास्तु लेख्याः || व्यास्तथैव दशपंच च शस्त्रवय || स्ते द्वादश प्रकटिताः खलु सप्त याप्याः ॥ २४५ ॥
पंचदशैव भिषजा परिवर्जनीयाः । बाह्रौ कदाचिदिह याप्यतराव साध्यां ॥
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