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क्षुद्ररोगाधिकारः।
( ३७१)
निर्यासमेव नरकिंशुकधुक्षजातं । क्षीरेण पिष्टमिह शर्करया विमिश्रम् ॥२५८॥
अम्लाध्युषित चिकित्सा. आश्च्योतनं निखिलपित्तकृताक्षिरोगा- । म्लाबाधिकाध्युषितमप्युपहंति सद्यः ॥ तोयं तथा त्रिफलया श्रृतमाज्यमिश्रं ।
पेयं भवेद्धतमलं न तु शुक्तिकायां ॥२५९॥ भावार्थ:-पित्तविकारसे उत्पन्न समस्त रोगोंको शीतल विधानोंके द्वारा नेत्ररोगकी चिकित्साको जाननेवाला वैद्य उपचार करें। ढाक की गोंदको दूधके साथ पीसकर शक्कर मिलाकर आश्च्योतन (आंखोमें डालनेकी विधि) करें । समस्त पित्तकृत नेत्रारोगोंको व अम्लाध्युषित आदि रोगोंको शीघ्र वह दूर करता है। इसी प्रकार त्रिफलाके काढेमें घी मिलाकर पीवें तो अम्लाध्युषित रोग को दूर करता है। यह योग शुक्तिरोगमें हितकारी नहीं है ॥ २५८-५९ ॥
शुक्तिरोग में अंजन. शीतांजनान्यपि च शुक्तिनिवारणार्थ । मुक्ताफलस्फटिकविद्रुमशंखशुक्ति-- ॥ सत्कांचनं रजतचंदनशकराढ्यं ।
संयोजयदिदमजापयसा सुपिष्टम् ॥ २६० ॥ भावार्थ:- आक्षिगत शुक्तिविकारको दूर करने के लिए शीतगुणयुक्त अंजनों के प्रयोग करना चाहिए । एवं मोती, स्पटिकमणि, शंख, सीप, सुवर्ण, चांदी, चंदन, व शर्करा इनको बकरीके दूधमें अच्छीतरह पीसकर अंजन बनाकर आंखोंमें प्रयोग करें ॥ २६० ॥
कफजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः । धूमदर्शी व सर्व श्लेष्मजनेत्ररोगोंकी चिकितला.
गव्यं धृतं सततमेव पिवेच्च नस्य । तेनैव साधु विदधीत स धूमदर्शी ॥ श्लेष्मामयानपि च रूक्षकटुप्रयोगः । शीघ्रं जयेदधिकतीक्ष्णशिरोविरकः ।। २६१ ॥
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