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क्षुद्ररोगाधिकारः।
( ३५५ )
भावार्थ:: - इस इसप्रकार आंखों के कांचो में रहने वाले इक्कीस प्रकार के रोगों को उनके दोषभेद, आकृति, नाम व लक्षण संख्या के साथ वर्णन कर चुके हैं। अब शुक्लमण्डलगत रोगों को कहेंगे ॥ १९८ ॥
विस्तार्य व शुक्ला के लक्षण
अथार्म विस्तारि सनीललोहितं । स्वशुक्लभांग तनुविस्तृतं भवेत् ॥ तथैव शुक्ला चिराच्च वर्धते । सितं मृदु श्वेतगतं तथापरं ॥ १९९ ॥
भावार्थ:- आंख के शुक्ल [ सफेद ] भाग में थोडा नील वा रक्तवर्णयुक्त पतला और विस्तृत : फैला हुआ ] ऐसा जो मांसका चय [ इकठ्ठा ] होयें इसे बिस्तारि अर्भ रोग कहते हैं । इसी प्रकार शुक्ल भाग में जो मृदु, सफेद, और धीरे २ बढने वाला जो मांसचय होता है इसे शुक्लार्म कहते हैं ॥ १९९ ॥
लोहिता व अधिमासार्मलक्षण
यदा तु मां प्रचयं प्रयात्यलं । स्वलोहितावुजपत्रसन्निभम् ॥ यकृत्सकाशं बहलातिविस्तृतं । सिताश्रयोऽसावधिमसिनामकम् ॥ २००॥ भावार्थ:- :- जब ( शुक्ल भाग में ) रक्त कमल दलके समान, लाल, मांस संचित होता है इसे लोहितार्म कहते हैं । जो जिगर के सदृशवर्णयुक्त, मोटा, अधिक 1 फैला हुआ, मांस संचित होता है इसे अधिमासार्म कहते हैं ॥ २०० ॥
स्नायुअर्स व कृश शक्तिके लक्षण.
स्थिरं बहुस्नायुकृतार्म विस्तृतं । सिरावृतं स्यापिशितं सिताश्रयं ॥ सलोहिता श्लक्ष्णतराश्च बिंदवो । भवंति शुक्ले कुशशुक्तिनामकम् || २०१ ।। भावार्थ: - शुक्ल भाग में मजबूत फैला हुआ शिराओं से व्याप्त जो मांस की वृद्धि होती है इसे स्नायुअर्भ कहते हैं । लाल व चिकने बहुत से बिंदु शुक्लभाग में होते हैं, इसे कृशशुक्ति [ शुक्ति ] नामक रोग कहते हैं ॥ २०१ ॥
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अर्जुन व पिकलक्षण.
एकः शर्शस्य क्षतजोपमाकृति- । र्व्यवस्थितो बिंदुरिहार्जुनामयः ॥ सितोन्नतः पिष्टनिभः सिताश्रयः । सुपिष्टकाख्यो विदितो विवेदनः ॥ २०२॥ भावार्थ:- शुक्ल में खरगोश के रक्त के समान लाल, जो एक बिंदु [ बूंद ] १ यथार्थ एव इति पाठांतरं ।
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