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क्षुद्ररोगाधिकारः ।
( ३५९ )
नक्स [रातको अा] कर देता है, जिससे उसे रातको नहीं दीखता है । उसकी आँखें सूर्य से अनुगृहीत होने से व कफ की अल्पता होनेसे उसे दिन में दीखता है ॥२१४ ॥
चतुर्थपटलगतदोषलक्षण,
यदा चतुर्थं पटलं गतस्सदा । रुणद्धि दृष्टिं तिमिराख्यदोषतः ॥
स सर्वतः स्वादिह लिंगनाश इ- । त्यथापरः षड्धिलक्षणान्वितः २१५ भावार्थ:- जब तिमिर नामक दोष [ रोग] चतुर्थ पटल में प्राप्त होता हो तो वह दृष्टिको सर्वतोभावसे रोकता है इसे लिंगनोश [ दृष्टि का नाश ] कहते हैं । इसलिये यह [ लिंगनाश ] अन्य छह प्रकार के रक्षणीस संयुक्त होता है । अत एव इसका छह भेद है ।। २१५ ॥
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लिंगनाश का नामांतर व वातजलिंगनाशलक्षण.
स लिंगनाशो भवतीह नीलिका | विशेषकाचाख्य इति प्रकीर्तितः ॥ समस्तरूपाण्यरुणानि वातजा - द्भवंति रूक्षाण्यनिशं स पश्यति ॥ २१६ ॥
भावार्थ::- वह लिंगनाश रोग, निलिकाकाच भी कहलाता है । अर्थात् नालिकाकाच यह लिंगनाश का पर्याय है । वातज लिंगनाश में समस्त पदार्थ सदा लाल व रूक्ष दिखते हैं ॥ २१६ ॥
पित्तकफरक्तज लिंगनाश लक्षण.
शतन्दद्रायुधवन्हिभास्कर - | प्रकाशखद्यतगणान्स पित्तजात् ॥
सितानि रूपाणि कफाच्च शोणिता- दतीव रक्तानि तमांसि पश्यति २१७
भावार्थ:- पित्तज लिंग नाश रोग में रोगीको सर्व पदार्थ बिजली इंद्रायुध अग्नि, सूर्य, व खद्योत के समान दिखते हैं । कफ विकारसे सफेद ही दिखते हैं । रक्त विकारसे अत्यंत दाल व काले दिखने लगते हैं ॥ २१७ ॥
सन्निपातिकलिंगनाशलक्षण व वातज वर्ण.
विचित्ररूपाण्यति विष्णुतान्यलं । प्रपश्यतीत्थं निजसन्निपातनात् ।
स एव कावः पवनात्मकरुणा । भवेत् स्थिरो दृष्टिगतारुणप्रभः ॥२१८॥ भावार्थ: सन्निपातन लिंगनाशमें वह रोगी अनेक प्रकारके विचित्र नानावर्णके] रूपों को देखने लगता है । उसको सर्व पदार्थ विपरीत दीखते हैं । १ इसे तिमिर भी कहते हैं । व्यवहार में मोतिया बिंदु कहते हैं ।
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