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कल्याणकारके
मातुलुंगाद्यजन. समातुलगाम्लकसैंधवान्वितं । निशाभयानागरपिप्पलीत्रयम् ।। विघट्टयेदुज्ज्वलताम्रभाजने । हरीतकीतलसुधूपितं मुहुः ।।१५२॥
भावार्थ:--विजोरी निंबू, बडहल, सेंधानमक, हलदी हरड, सोंठ, पीपल, वन पीपल गजपीपल, इन को साफ, ताम्र के बर्तन में डालकर खूब रंगडना चाहिये । और उसे, हरड व तिलके तेल से पार २ धूप देना चाहिय । यह अंजन श्लेष्माभिष्यंद रोग को हितकारी है ॥ १५२ ॥
मुरुंग्यांजन. तथा मुहंगी सुरसादकद्रव- । मणिच्छिला मागधिका महौषधम् ।। विमर्दयेत्तद्वदिहप्रधूपितं । सदांजनं श्लेष्मकृताक्षिरोगिणां ॥ १५३ ॥
भावार्थ:-काला सेंजन, तुलसी. व आद्रक के रस से मैनशिल, पीपल, सोंठ, इन को ताम्रके बर्तन में, खूब मर्दन करें। और हरट, और तेल से धूप देवें । इस अंजन को, कफोत्पन्न नेत्ररोगियों को प्रयुक्त करना चाहिये ॥ १५३ ।।
कफज सर्वनेत्ररोगोंके चिकित्सा संग्रह. कफोद्भवानक्षिगताखिलामया- । नपाचरेदक्तसमस्तभपजैः । विशेषतः कोमलशिग्रुपल्लव- । प्रधानजातीपुटपाकसदसैः ॥१५४॥
भावार्थ:--उक्त प्रकार के समस्त औषधियोंसे कफ विकारसे उत्पन्न नेत्र रोगोंकी चिकित्सा करनी चाहिये । विशेषतया सेजनका कोमल पत्ते जाई (चमेली) के पत्ते को पुटपाक करके भी इसमें उपचार करना चाहिये ॥ १५४ ॥
कफाभियद में पथ्थ भोजन. कफातियुक्तंतिकटुप्रयोग- । विशुष्कशाकैरहिमबिलक्षितैः ॥ त्र्यहारव्यहार प्रातरुपोषितं नरं । घृतान्नमल्यं लभुभोजयेत्सकृत् ॥१५५
भावार्थ:-कफ अत्याधिक युक्त नेत्र रोगी मनुष्य को अति कटु औषधियोंके प्रयोगके साथ २ तीन २ दिनतक उपवास कराकर, सूखे व राक्ष गरम शाकों के साथ घोसे युक्त लघु व अल्प अन्न को प्रातःकाल एक बार भोजन करावें ॥ १५५ ॥
कफामिष्यद में पेय. पिवेदसौ कुष्टहरीतकीधनः । शृतोरणमल्पं जलमक्षिशेगवान् । कणसनपजसिद्धमेव का । हित मनोहारिणमाहकारसम् ॥ १५६ ॥
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