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कल्याणकारके भावार्थ:--यहां से आगे वर्भगत ( आखों के ) रोगोंको उन का दोष भेद, लक्षण, नाम, संख्या, साध्य को साधन करनेका प्रधान सिद्धांत ( चिकित्साक्रम ) और श्रेष्ट औषधियोंके साथ २ विशेषरीति से वर्णन करेंगे ॥ १७७॥
उत्संगिनी लक्षण. त्रिदोषजयं पिटकांतरानना । बहिर्गतका वरसंश्रिता घना ॥ स्ववत्मजोरसंगिनिकात्मनामतो । भवेद्विकारो वहुवेदनाकुलः ॥१७८॥
भावार्थ:---नीचे के कोय में बाहर उभरी हुई, घन, अत्यंत वेदना से आकुलित, त्रिदोषोत्पन्न पिटिका होती है जिस का मुख भीतर को ( आंख की तरफ ) हो इस वर्म में उत्पन्न विकार का नाम उत्संगिनी है ॥ १७८ ॥
- कुंभीकलक्षण. स्ववर्त्मजा स्यापिटका विवेदना । स्वयं च कुंभीकफलास्थिसन्निभा ॥ मुहुस्सदाध्माति पुनश्च भिद्यते । कफात्स कुंभीक इतीरतो गदः॥१७९॥
भावार्थः----अपन वर्म ( कोये, पलकोंके बीच ) में वेदनारहित कुंभीक बाजके भाकारवाला पिटका [ पुन्सी ] उत्पन्न होता है । जो एक दफे सूजता है, दूसरी दफे फूटकर उससे पूर्व निकलता है, पुनः सूजता है । वह कफ विकारसे उत्पन्न कुंभीक नामक रोग है ॥ १७९ ॥ .
पोथकी लक्षण. सकण्डुरस्वावगुरुत्ववेदना भवंति बहव्यः पिटकाः स्ववमजाः ॥ सुरक्तवर्णास्समसर्षपोपमा-- | स्सदैव पोधक्य इति प्रकीर्तिताः ॥१८०॥
भावार्थ:-आंखों के वर्म [ कोये ] में खाज सहित, सात्र, वेदना व गुरुत्वसे युक्त बहुतसी पिडिकायें उत्पन्न होती हैं व लालवर्णसे युम्त सरसोंके समान रहती हैं उन्हे सदैव पोथकी पिटका कहते हैं ॥ १८० ॥
__ धर्मशर्करा लक्षण. खरा महास्थलतरा प्रदूषणा । स्ववर्मकेरे पिटकावृतापरैः ॥ सवक्ष्मकण्ड्रोपटकागणभंवत् । कफानिलाभ्यामिह वमशर्करा ॥१८१॥
१ अनार के आकारवाला फल विशेष! कोई कुम्हेर कहते हैं।
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