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क्षुदरोगाधिकारः।
(२८९)
नाडीव्रण अपची नाशक. योग।
दिनकरतरुमूलैः पकसत्पायसो वा । प्रतिदिनमशनं स्यात्सर्वनाडीत्रणेषु ॥ बदरखदिरशाष्टांघ्रिभिर्वापि सिद्धं ।
शमयति तिलनाढ्यं साधुनिष्पाववर्गः ॥ १९ ॥ भावार्थ:-सर्व प्रकारके नाडी गोमें अकौवेके जडके साथ पकाया हुआ पायस ( खीर ) ही प्रतिनित्य भोजन में देना चाहिये । अथवा बदर, (बेर) खदिर, (खैर) बड़ी करंज, इनके जडसे सिद्ध पायस देना चाहिये । अथवा निप्पाव ( भटवासु) वर्ग के ( रक्तनिष्पाव, सफेद निष्पाव आदि ) धान्यों को तिलके तैलसे मिलाकर भोजन में देनेसे सर्व नाडीव्रण ( नासूर ) व अपची नष्ट होते हैं ॥ १९ ॥
अपि च सरसनीलीमूलेमकं सुपिष्टं । दिनकरशशिसंयोगादिकाल स्वरात्रौ ।। असितपशुपयोव्यामिश्रितं पीतमेतत् ।
प्रशमनमपचीनामावहत्यंधकारे ॥ २० ॥ भावार्थ:--रसयुक्त एक ही नील के जडको अच्छी तरह पसिकर, काली गायक दूध में मिलाकर जिस दिन सूर्य और चंद्रमा का संयोग होता हो, उसी दिन रातको अंधेरे में पायें तो अपची रोग शांत होता है ॥ २०॥
गलगण्डलक्षण व चिकित्सा । गलगतकफमेदोजातगण्डामयाना। मधिकवमननस्यस्वेदतीव्रोपनाहान् ॥ सततमिह विधाय प्रोक्तपाकान्दिार्य ।
प्रतिदिनमथ सम्यग्योजयेच्छोधनानि ।। २१ ॥ भावार्थ:-कफ और मेद दूषित होकर, गले में रहनेवाली मन्था नाडी को. प्राप्त करके उसमें शोथको उत्पन्न करते हैं जो कि अण्डकोश के समान गले में बंधा हुआ जैसा दीखता है इसे गलगण्ड कहते हैं । इस को वमन, नस्य, स्वेदन, तीन उपनाह आदि का प्रयोग करें । जब वह पकजावे तो विदारण करके शोधन, रोपणविधानका प्रयोग करना चाहिये ॥ २१ ॥
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