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क्षुद्ररोगाधिकारः।
भावार्थ:-विचर्चिका, इसी का भेदभूत विपादिका ( वैगादिक ) पामा, कच्छु इन रोगों का वर्णन कुष्ठ प्रकरण में क्रमप्रकार कर चुके हैं । इसलिये यहां भी वैसा ही लक्षण जानना चाहिये । पैरों में कंकर छिदने से, कांटे लगने से, बैर अथवा कील के समान जो गांठ होती है, उसे कदर [ ठेक ] कहते हैं। जो पुरुष अधिक चलता रहता है, उस के पैरों में वायु प्रकुपित होकर उनको रूक्ष करता है और फाड देता है इसे दारी या पाददारी कहते हैं। इस का स्वभाव तीव्र होता है ॥ ५१ ॥
. इंद्रलुप्तलक्षण. पवनसहितपित्तं रोमकूपस्थितं तत् । वितरति सहसा केशच्युलिं श्वेततो च ॥ कफरुधिरनिरुद्धात्मीयमार्गेषु तेषां ।
न भवति निजजन्मात्तच्च चाचेंद्रलुप्तं ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-त्तसे युक्त पित्त जब रोमकूपोमें प्रवेश करता है, तब केशच्युति व केशमें सफेदपन' हो जाता है । पश्चात् कफ और रक्तके द्वारा रोमकूप [ रोमोंके छिद्र ] रोके जाते हैं तो फिर नये रोमोंकी उत्पत्ति नहीं होती है। इसे इंद्रलुप्त [चाई । रोग कहते हैं ॥५२॥
__ जतुमणि लक्षण. सहजमध च लक्षोत्पन्नसन्मण्डलं तत् । कफरुधिरनिमित्तं रक्तमज्ञातदुःखम् ॥ शुभमशुभमितीत्थम् तं विदित्वा यथाव-- ।
ज्जतुमणिरपनेयं स्थापनीयो भिपग्भिः ॥ ५३ ॥ भावार्थ:-कफ व रक्त के प्रकोपसे, जन्मके साथ ही उत्पन्न मण्डलके समान जो गोल व रक्तवर्ण युक्त चिन्ह होता है जिससे किसी भी प्रकारका दुःख नहीं होता है, उसे जतुमणि कहते हैं । ( इसको देश भाषामें लहसन कहते हैं )। कोई जतुमणि किसी को शुभफलदायक और कोई अशुभदायक होता है । इसलिये इसमें जो शुभ फलदायक है उसको वैसे ही छोडें । [ किसी भी प्रकारकी चिकित्सा न करे ] जो अशुभफलदायक है उसको औषवि आदि प्रयोगसे निकाल देवें ॥ ५३ ॥
व्यंग लक्षणकुपितरुधिरपित्ताद्वातिरोषातिदुःखा-। इहनतपनतापाद्वा सदा क्लेशकोपात् ॥
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