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(३२२)
कल्याणकारक
भावार्थ:-प्रकुपित वात, पित्त व कफसे जिव्हाके ऊपर कांटे के समान अंकुर उत्पन्न होते हैं । दोषों के अनुसार प्रकट होनेवाली वेदना व लक्षण से युक्त होते हैं। हलदी, सेंधालोण, त्रिकटु व तेल मिलाकर उसे घर्षण करना चाहिये । ६० ॥
वातपित्तकफजजिह्वारोग लक्षण व चिकित्सा. विघृष्य पौरपहत्य शोणितं । सशीतलैरुष्णगणैर्घतप्लुतैः ॥ मसारोपित्तकृतोरुकंटकान् । कटुत्रिकैमूत्रगणैः कफोत्थितान् ॥६१॥
भावार्थ:-पित्तज विकारसे उत्पन्न कंटकों में पहिले खरदरे पत्रोंसे जिव्हाको घिसकर रक्त निकालना चाहिये । तदनंतर शीतल व उष्णगणोक्त औषधियों को घी में भिगोकर उसपर लगाना चाहिये । कफके विकारसे उत्पन्न कंटकोंमें त्रिकटु को मूत्र वर्गसे मिलाकर लेपन करना चाहिये ॥ ६१ ॥
जिव्हालसकलक्षण. रसेंद्रियस्याधरशोफमुन्नतं । बलासपित्तोत्थितमल्पवेदनम् । वदंति जिहालसकाख्यमामयं । विपकदोषं रसनाचलत्वकृत् ॥६२॥
भावार्थ:---कफ व पित्तके विकारसे रसना इंद्रिय (जीभ) के नीचे का भाग अधिक सूज जाता है। किंतु वेदना अल्प रहती है । उसे जिह्वालसक रोग कहते हैं। इसमें दोषोंका विपाक होनेपर ( रोग बढजाने पर ) जीभ हिलाने में नहीं आती ॥६२॥
जिह्वालसक चिकित्सा. विलिख्य जिहालसकं विशोध्य तत् । प्रवृत्तरक्तं प्रतिसारयेत्पुनः । ससर्षपैस्सैंधवपिप्पलीवचा-पटोलनिबैततैलमिश्रितैः ।। ६३ ॥
भावार्थ:-जिह्वलसक को लेखन (खुरच ) कर जब उस से रक्त की प्रवृत्ति होवें तब अच्छी तरह से शुद्ध करना चाहिये । विलेखन कर उस से निकले हुए अर्थात रक्तका शोधन करना चाहिये तदनंतर सरसों, सेंधालोण, पीपल, वचा, परबलके पत्ते, नीम इनको घी तेल में मिलाकर उस में लगाना चाहिये ॥ ६३ ॥
उपजिव्हालक्षण. अधस्समुन्नभ्य रसेंद्रियं भृशं । तदग्ररूपं कफरक्तशोफकम् । अजस्र लालाकरकण्डुरान्वितं ब्रुवांत साक्षाादुपनितिकामयम् ॥ ६४ ॥
भावार्थः---जीभ को नीचे नमाकर, जिव्हाके अप्रभाग के समान ( जीभ के आगे का हिस्सा जैसे देखने में आवे ) कफ व रक्त के प्रकोप से, सूजन उत्पन्न होती
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