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(३२४)
कल्याणकारक
.....भावार्थ:-मसूडों से दुगंध रक्त बहता है और दांत सब के सब हिलने लगते है उसे दंतवेष्ट नामक रोग कहते हैं । उसे दुष्ट रक्त के मोक्षणस जीतना चाहिये ॥६८
. सुषिरलक्षण व चिकित्सा. रुजाकरश्शोफयुतस्सवेष्टजो । बलासरक्तमभवः कफावहः ॥ .. भवेत्स्वनाम्ना मुषिरं तमामयं । रुजांजनैलॊध्रधनैः प्रसारयेत् ॥ ६९ ॥
भावार्थ:----कफ रक्त के प्रकोपसे मसूडो में पीडाकारक सूजन उत्पन्न होती है जिस से कफ का स्राव होता है । इसे सुषिर रोग कहते हैं । इस को, कूट, सुरमा लोध, नागरमोथा इन से बुरखना चाहिये ॥ ६९ ॥
महासुषिरलक्षण व चिकित्सा. पत्तति देताः परितः स्ववेष्टतः । विशयिते तालु च तीव्र वेदना ॥
भवेन्महाख्यस्सुपिरोरुसर्वजः । स साध्यते सर्वजितौषधक्रमैः ॥ ७० ॥ . भावार्थ:---दंतवेष्टनसे दंत गिरजाते हैं और तालु चिर जाता है। एवं अत्यंत वेदना होती है उसे महासुषिर नामक रोग कहते हैं । वह सन्निपातज है । उसके लिये तीनों दोषोंको जीतनेवाले औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये ॥ ७० ॥
परित्रदरलक्षण. विशीर्य मांसानि पतंति दंततो । बलासपित्तक्षतजोद्भवो गदः । असक्स निष्टीवति दुष्टचेष्टकः । परिस्रयुक्तो देर इत्युदीरितः ॥ ७१ ॥
भावार्थ:--जिस में दांतों के मांस ( मसूडे ) चिरकर गिरते हैं, दंतवेष्ट उनसे दूषित हो जाता है, दंतवेष्टों [मसूडों] से खून निकलता है वह कफपित्त व रक्त के प्रकोप से उत्पन्न है । इस रोगको परिस्र से युक्त दर अर्थात् परिस्रदर कहते हैं ॥११॥
उपकुशलक्षण. सदाहवेष्टः परिपकमेत्यसौ । प्रचालयत्युद्गतदंतसंततिम् । भवेत्स दोषो कुशनामको गदः । सपित्तरक्तप्रभवोतिदुःखदः ॥ ७२ ॥
भावार्थ:-पित्त रक्त के प्रकोप से, मसूडोंमें दाह व पाक होता है । फिर यही सब दांतोंको हिलाता है। उस में अत्यधिक दुःख होता है। उसे कुशनामक रोग कहते हैं ॥ ७२ ॥
१रद इति पाठांतर।
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