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(३३८)
। कल्याणकारके
पंचमंडल षट संधि. स्वपक्षमवर्तीद्वय शुक्लकृष्णस- । द्विशेषष्ट्याश्रयमण्डलानि तत् ॥ द्वयोश्च संधावपि संधयस्ततः । कानिकापांगगता तथापरौ ॥ १२८ ॥
भावार्थ:-त्रों में पक्ष्म, वर्म, शुक्ल, कृष्ण, दृष्टि इस प्रकार ये पांच मंडल हैं। इनमें दो २ मंडलों के बीच में एक २ संधि है । इस प्रकार पांच मंडलोंके बीच में ४ संधियां हुई। पांचवी संधि, कनीन ( नाक के सांप ) में, छठी अपांग [ कनपटी के तरफ नेन की कोर ] में है ॥ १२८॥
. ... षट् पटल। . . . . इमे च साक्षात्पटले रववर्त्मनि । तथैव चत्वार्यपि चक्षुषः पुटम् ॥ भवेच्च घोरं तिमिरं च येषु तत् । विशेषतस्सर्वगतामयान्ब्रुवे ॥१२९॥
भावार्थ:--दो पटल ( परदे ) तो वर्ममें होते हैं । इसी प्रकार चार पटल नेत्र गोलक ( अक्षि ) में होत हैं । इही नेत्र गोलकके चार पटलोमें तिमिर नामक घोर व्याधि होती है । आगे सम्पूर्ण नेत्रगत रागोंके वर्णन विशेष रीतीसे करेंगे । १२९ ॥:
अभिष्यंदवर्णनप्रतिज्ञा समस्तनेशामयकारणाश्रयान् । ब्रवीम्यभिष्यंदविशेषनामकान् ॥ विचार्य तत्पूर्णमुपक्रमं च त-- । द्विशेषदोषप्रभावाखिलामयान् ॥१३०॥
भावार्थ:-समस्त नेत्र रोगोंके कारण व आश्रयभूत तत्तद्विशेष दोषासे उत्पन्न, अभिष्मंद इस विशेष नामधारक, सम्पूर्ण रोगोंको कहते हुए, उनकी सम्पू:। चिकित्साको भी कहेंगे ।। १३० ॥
वाताभिष्यंद लक्षण. सतादभेदप्रचुरातिवेदना । विशेषपारुप्यसरोमहर्षणम् ॥ हिमाशुपातोऽशिशिराभिनंदनं । भवत्यभिष्यंद तदेव मारुतम् ॥ १३१ ॥
भावार्थ:-- जिस अक्षिरोग में, आंखोंमें तोदन भेदन आदि नाना प्रकारको अत्यंत वेदना, कडापन व रोमांच होता हो, टण्डी आसू ( जल ) गिरती हो ओर गरम उपचार अच्छा मालूम होता हो, इसे वाताभिष्यंद अर्थात बातोद्रेकसे उत्पन्न अभिप्यंद जानना चाहिये ॥ १३१ ॥
१ जैसे १ पक्ष्म और वर्ल्स के बीच में. २ वर्म और शुक्ल भाग ( सफद पुतली) के बीच में । ३ सफेद और काली पुतली के बीच में | ४ कालो पुतली और दृष्टि(तिल) के बीच में।
२ व्यपोय इति पाटांतरं ॥
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