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कल्याणकारके
भावार्थ:-तीनों दोषोंके लक्षणोंको प्रकट करते हुए क्रम क्रमसे गले में शोफ बढता जाता है उसे मांसरोग कहते हैं। वह तीव्र विषैला सर्पके समान विनाश करनेवाला है ॥ ९३ ॥
गलामय चिकित्सा व तालुरोगवर्णनप्रतिज्ञा.. गलामयं छईननस्यलेपन- । प्रलेपगण्डूषविशेषरूपणैः।।
जयेदतस्तालुगतामयांतरं । ब्रवीमि तल्लक्षणतश्चिकित्सितैः ॥ ९४ ।। ३, भावार्थ:-इस प्रकार गलगत रोगोंकी वमन, नस्य, लेपन, मलेपन, गण्डूष,
श्रादि विशिष्ट प्रकार से चिकित्सा करनी चाहिए । अब तालुगत रोगोंका निरूपण लक्षण घ चिकित्सा के साथ करेंगे ॥ ९४ ॥
नव प्रकारके तालुरोग।
गलशुंडिका [ गलशुंडी ] लक्षण. असूक्कफाभ्यामिह तालुमूलज । प्रवृद्धदीर्घायतशोफमुन्नतम् ॥ सकासतृष्णाश्वसनैः समन्वितम् । वदंति संतो गलशुडिकामयम् ॥१५॥
भावार्थ:--रक्तकफके विकारसे तालुके मूल में वृद्धिको प्राप्त, लम्बा, बडा व उन्नत शोफ होता है जो कि खसी, तृषा व श्वास से युक्त रहता है उसे गलशुद्धिका रोग कहते हैं ॥ ९५ ॥
जलशुडिका चिकित्सा व तुण्डिकेरीलक्षण व चिकित्सा. विभिद्य शस्त्रेण तमाशु साधयेत् । कदात्रिकैः कुष्ठकुटनटान्वितैः ॥ स दाहवृत्तोन्नतशाफलक्षणं । स तुण्डिकरीमपि खण्डयेब्दुधः ॥ ९६॥
भावार्थ:-गलशुडिको शीघ्र शस्त्रसे विदारण करके त्रिकटु, कूठ, शोनाफ इन औषधियोंसे (इनका लेप, गण्डूष आदि द्वारा) चिकित्सा करनी चाहिये । तालू में, दाह सहित गोल, उन्नत शोथ ( क.फ रक्त के प्रकोपसे ) उत्पन्न होता है । इस डिवेरी 'रोग कहते हैं । इसे जो भी विद्वान वैद्य भंदन आदिद्वारा चिकित्सा करें ॥ ९६ ॥
अध्रुष लक्षण व चिकित्सा. ज्वरातिदाहमचुरोऽति रक्तज- । स्सरक्तवर्णः श्वयधुर्मुदुस्तथा ॥ तं तालुदेशोद्भवमध्रुषं जयेत् । स शस्त्रकर्मप्रतिसारणादिभिः ॥ ९७ ॥
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