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( १२८ )
कल्याणकारके
वलयलक्षण.
कफः करोत्युच्छ्रितशोफमायतं । जलाग्नरोधादधिकं भयंकरम् || विवर्जयेत्तं वलयं गलामयं । विषामिशस्त्राशनिमृत्यु कल्पितम् ॥ ८५ ॥
भावार्थ:- कफ के प्रकोप से, गले में, ऊंचा और लम्बा शोथ [ ग्रंथि ] उत्पन्न होता है । जिससे जल अन्न आदि आहार द्रव्य गले से नीचे उतरते नहीं, इसी लिये यह अत्याधिक भयंकर है । इस का नाम वलय है । यह विष, अग्नि, शस्त्र, बिजली व मृत्यु के समान है। इसे असाध्य समझकर छोड़ना चाहिये ॥ ८५ ॥
मद्दालसलक्षण.
कफानिलाभ्यां श्वयथुं गलोत्थितं । महालसाख्यं बहुवेदनाकुलम् || सुदुस्तरश्वासयुतं त्यजेद्र्बुधः । स्वममविच्छेदनमुग्रविग्रहम् ॥ ८६ ॥
भावार्थ:1:- कफवात के प्रकोप से गले में एक ऐसा शोध उत्पन्न होता है जो अत्यधिक वेदना व भयंकर श्वास से युक्त होता हैं । मर्मच्छेदन करनेवाली इस दुस्तर व्याधिको महारस (बलाश ) कहते हैं ॥ ८६ ॥
एकवृंद लक्षण.
बलासरक्तप्रभवं सकंडुरं । स्वमन्युदेशे श्वयथुं विदाहिनं ॥
सुदुं गुरुं वृत्तमिहाल्पवेदनम् । तमेकवृंदं प्रविदार्य साधयेत् ॥ ८७ ॥ - भावार्थ:- :--कफरक्त के विकार से खुजली व दाह सहित कंठप्रदेशमें होनेवाला शोफ जो मृदु, गुरु, गोल व अल्प वेदनासहित है उसे एकवृंद कहते हैं । उसको विदारण कर चिकित्सा करनी चाहिए ॥ ८७ ॥
वृन्दलक्षण.
गले समुत्थं श्वयथुं विदाहिनं । स्ववृत्तमत्युत्कटापित्तरक्तजम् ॥ समुन्नतं वृन्दमतिज्वरान्वितम् । भयंकरं प्राणहरं विवर्जयेत् ॥ ८८ ॥
भावार्थ:- गले में, गोल ऊंचा शोध उत्पन्न होता हैं जो कि दाह, तीव्र ज्वर से संयुक्त है, इस प्राणघातक, भयंकर व्याधिको वृन्द कहते हैं । यह असाध्य होता है, इसलिये इसे छोड देवें, चिकित्सा न करें ॥ ८८ ॥
शतनी लक्षण.
सतोदभेदप्रचरांचितांकुरां । घनोन्नतां वर्तिनिभां निरोधिनीम् । त्रिदापेलिंगां गलजां विवर्जयेत् । सदा शतघ्नीमिह सार्थनामिकाम् ॥ ८९ ॥
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