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! कल्याणकारके
मुख कांतिकारक लेप. तालं मनश्शिलंयुतं वटपत्रयुक्त । श्वेताभ्रसूतसहितं पयसा सुपिष्टं ॥ आलिप्यवक्त्रममलं कमलोपमानं ।
मान्य मनोनयनहर करोति मर्त्यः ॥ ६७ ॥ भावार्थ:-हरताल, मैनसिल, बटपत्रा, सफेद अभ्रक, पारद इनको दूधके साथ अच्छीतरह पीसकर मुखपर लेपन करें तो मुख कमलके समान बन जाता है । और सबका मन व नेत्रको आकर्षित करता है ॥ ६७ ॥
अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो ।
निसृतमिदं हि शीकरानिभं जगदेकाहितम् ॥ ९१ ॥ भावार्थ:--- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तब व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है। साथ में जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] .
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे
क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितश्चतुर्दशः परिच्छेदः ।
इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधि विभूषित वर्षमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित
भावार्थदीपिका टीका में क्षुदरोगाधिकार नामक
चौदहवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
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