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विदारिका लक्षण. त्रिभिरभिहितदोषैर्वक्षणे कक्षदेशे । स्थितारगुरुशोफास्कदवद्वा विदार्याः । भवति तदभिधानख्यातरोगस्त्रिीलंग- ॥
स्तमपि कथितमार्गः सर्वदोषक्रमेण ॥ ४८ ॥ भावार्थ:--पूर्वकथित तीनों दोषोंके प्रकोपसे राङ व कक्षा प्रदेश [ जोड ] में विदारीकंद के समान, गोल, स्थिर, व बड़े भारी शोथ उत्पन्न होता है। इसमें तानों दोषोंके लक्षण प्रकट होते हैं, इसका नाम विदारिका है । इसको भी पूर्वकथित दोष भेदोंके अनुसार योग्य औषधिक प्रयोगसे उपशमन करें ॥ ४८ ॥
शर्करावुदलक्षण. कफपचनबृहन्मेदांसि मांसं सिरास्तते । त्वचमपि सकलस्नायुप्रतानं प्रदृष्य । कठिनतरमहाग्रंथि प्रकुर्वेति पकं । स्रवति प्रधुवसासर्पिः प्रकाशं स एव ॥ ४९ ॥ तमधिकतरवायुर्विशोष्याशु मांसं । ग्रथितकठिनशुष्कं शर्कराद्यर्बुदं तं ॥ वितरति विषमं दुर्गधमक्लेदिरक्तम् ।
सततमिह सिराभिः सासवं दुष्टरूपम् ॥ ५० ॥ . भावार्थ:-प्रकुपित कफ व बात, मेद, मांस सिरा, त्वचा एवं संपूर्ण स्नायु समूह को दूषित कर, अत्यंत कठिन ग्रंथि ( गांठ ) को उत्पन्न करते हैं । जब वह पककर फूट जाये तो, उस में से, शहद, चर्बी व घी के समान स्राव होने लगताहै। इससे फिर वात अधिक वृद्धि होकर शीघ्र ही मांस को सुखाता है, और, प्रथित; कडी, व सूखी, वालू के समान बारीक गांठ को पैदा करता है । इससे शिराओं द्वारा, अतिदुर्गध, क्लेदयुक्त स्त हमेशा बहने लगता है तो उसे शर्करायुद कहते हैं । ॥ ४९ ॥ ५० ॥ विचर्चिका, अपादिक, पामा, कच्छु, कदर, दारी, रोग लक्षण.
विधिविहितविच भेदरूपान्विपादी । विराचितवरपामालक्षणान्कच्छुरोगान् ॥ बहुविधगुणदोषावृक्षपादद्वयेऽस्मिन् । कदरमिति तले ब्रूयुदरीः तीव्ररूपाः। ५१ ॥
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