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क्षुद्ररोगाधिकारः
(२९१) भावार्थ:-दूषित रक्त, वात, पित्त, कफ, एवं मांस मेद, सिराओसे तत्तष व धातुओंके अनुकूल प्रकट होनेवाले लक्षणोंसे सुंयुक्त, शरीरमें ग्रंथियां ( गांठे ) होजाती हैं । इन सर्व प्रकारकी ग्रंथियोंको दोष दूष्यादि भेदके अनुसार बार २ कहे गये औषधियोंके प्रयोगसे तथा लेपन, उपनाह आदि विधियोंसे चिकित्सा करें ॥ २४॥ .
सिराजग्रंथि के असाध्य कृच्छ्रसाध्य लक्षण । परिहरति शिराजग्रंथिरोगानचाल्यान् । प्रचलतरविशेषाः वेदनाव्यास्तु कृच्छाः ॥
द्विविधविद्वधि भवति बहिरिहांतर्विद्रधिश्चापि तद्वत् ।
विषमतरविकारो विद्रधिश्चांतरंगः ॥ २५ ॥ भावार्थ:-सिरासे उत्पन्न अर्थात् सिराजग्रंथि, ( सिराज ग्रंथि के चल, अचल इस प्रकार दो . भेद हैं) यदि अचल ( चलनशील न हो) होवें एवं वेदनासे रहित होवें तो वह असाध्य होता है । इसलिये वह छोडने योग्य है (अचिकित्स्य है।) यदि चल एवं वेदना से युक्त होवें तो वह कष्टसाध्य होता है।
विधि रोग दो प्रकार का है। एक बाह्यविद्रधि दूसरा अंतर्विद्रधि । पहला तो शरीरके बाहर के प्रदेशोंमे होता है, इसलिये बाह्य कहलाता है। दूसरा तो शरीर के अंदर के भाग में होनेसे अंतर्विद्रधि कहलाता है । इन में अंतविद्रवि अत्यंत विषम होता है अर्थात् कठिन साध्य होता है ॥ २५ ॥
विशेषः--अस्थि में आश्रित कुपित वातादि दोष, त्वचा, रक्त मांस, मेदोंको दूषित कर, एक बहुत बडा गोल व लम्बा सूजन को उत्पन्न करते हैं। जिस का मूल (जड) भारी व बडा होता है । वह अतीव पीडासे युक्त एवं भीषण होता है । इसे विद्रधि कहते हैं। . . अंतर्विदधि शरीर के अंदर, के बाजूमें गुदा बस्ति, ( मूत्राशय ) नाभि, कुक्षि राड प्लिहा (तिल्ली) यकृत् इत्यादि स्थानो में होता है ।
विद्रधिका असाध्य दुःसाध्य लक्षण. गुदहृदययनाभिप्लिहाबस्तिजातः । समुपजनितपाको विद्रधि व साध्यः । विषमतरविपको यश्च भिन्नोऽन्यदेशे ॥ तमपि च परिहृत्य ब्रूहि दुःसाध्यतां च ॥ २६ ॥
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