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(१८८)
कल्याणकारके
अपचीलक्षण। हनुगलनयनाशषास्थिंसधि प्रदशे-।
वधिकमुपचितं यन्मदे एवाल्पशोफम् ॥ कठिनमिह विधत्त वृत्तमत्यायतं वा- ।
प्युपचयनविशेषात्माहुरत्रापची ताम् ॥ १६ ॥ भावार्थ:-हनु (टोडी ) गला, आंग्व, इनके व सर्व हड्डियों की संधि [जोड] में अधिक मेद [चौथा धातु] एकत्रित होकर एक अल्प शोथ को उत्पन्न करता है । जो कि कठिन, गोल अथवा लम्बा होता है । इस को अपची कहते हैं । इसमें मेद का उपचय होता है । इसलिये इस को अपची नामसे कहते हैं ॥ १६॥
अपचीका विशेष लक्षण। कतिचिदिह विभिन्नस्रावमेवं सवन्ती । प्रशमनमिह साक्षात् केचिदेवाप्नुवंति ॥ सततमभिनवास्ते ग्रंथयोऽन्ये भवति ।
विविधविषमरूपास्तेषु तैलं यथोक्तं ॥ १७ ॥ भावार्थ:---इस अपची की कितनी ही गांठें, अपने आप फूट जाती है। और उस में पूय आदि स्राव होने लगते हैं। पूर्वोत्पन्न कितने ही ( अपने आपही) उपशमन होते हैं। फिर हमेशा नये २ उत्पन्न होते रहते हैं जो नानाप्रकार के विषमरूप लक्षण] से युक्त होते हैं । इसपर पूर्वोक्त तैल का ही उपयोग करें ॥ १७॥
अपची चिकिया। चमनमपिच तीक्ष्णं नस्यमत्रापानां। विधिवदिह विधेयं सद्विरेकश्च पश्चात् ॥ विविधविषमनाडीषूक्तमन्यच्च तच्च ।
प्रतिदिनमिह योज्यं श्लेष्मभरमशात्यै ॥ १८ ॥ मावार्थ:-~-इस अपची रोग में कैफ और मेद की शांतिके लिये निधिके अनुसार घमन और तीक्ष्ण नस्य देना चाहिये । उसके पश्चात् विरेचन भी देना चाहिये । एवं अनेक विषम नाडीरोगों [ नासूर के लिये जो चिकित्सा कही गई हैं उन सब का भी प्रयोग करना चाहिये ॥ १८ ॥
क्यों कि इस रोग में वफ मेद की ही अधिक वृद्धि रहता
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