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( ७२ )
कल्याणकारके
जलजदललवंगोश रिसबंदनायै । हिमकरतुटिकुष्टप्रस्फुरन्नागपुष्पैः ॥ सुरभिवकुलजातीमल्लिका पाटलीभिः । सलवितलवलीनीलोत्पलैश्वोचचारैः ॥ १३ ॥
अभिनवसहकारैश्चंपकाद्यैरनेकै- । सुरुचिरवरगंधैर्मृत्कपालैस्तथान्यैः ॥
असनखदिरसारैर्वासितं तोयमेत- ।
च्छमयति सहसा संतापतृष्णादिदोषान् ॥ १४ ॥
भावार्थ - कतकफल ( निर्मली बीज ) व अतसीके आटा डालना, अग्निसे तपाना, तपे हुए लोहको बुझाकर गरम करना, सूर्यकिरण में रखना, रात्रिमें चान्दनीमें रखना आदि नाना प्रकार के उपायोंसे शोधन किया गया, तथा वस्त्र वगैरहसे छना हुआ, कमलपत्र, · लौंग, खश, चन्दन, कर्पूर छोटी इलायची, कूट, श्रेष्ट नागपुष्प (चंपा ) अत्यंत सुगंधि बकुल जाई, मल्लिकापुष्प, पाढन के फूल, जायफल, हरपारेवडी, नीलोपल, दालचीनि शरीभेद नवीन व अत्यंत सुगंधि युक्त आमका फूल, चम्पा आदि अनेक सुगंधि युक्त पुष्पोंसे, तथा मृत्कपाल, ( भृष्टखर्पर) विजयसार खैरसार आदिकोंसे, सुगंध किया गया जल, शीघ्र ही ताप, तृष्णा आदि दोषोंको शमन करता है ।। १२॥१३॥१४॥
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वर्षाकाल मे भूमिस्थ, व आकाशजलके गुण । न भवति भुवि सर्वं स्नानपानादियोग्यं । विषमिव विषरूपं वार्षिकं भूतलस्थम् ॥ विविधविषम रोगाने हतुर्विशेषा । दमृतमिति पठन्त्येतत्तदाकाशतोयम् ॥ १५ ॥
भावार्थ:-- लोक में सभी पानी स्नान और पीने योग्य नहीं हुआ करते हैं, कोई विषके समान भी ( जल ) होते हैं । वर्षा ऋतु में भूतलस्थ जल, नाना प्रकार के विषम व्याधियों की उत्पत्ति के लिये कारण है । आकाशसे गिरता हुआ जो कि भूमि के स्पर्श करने के पहिले ही ग्रहण किया गया हो ऐसे पानी अमृत के समान है | ॥ १५ ॥
कथित जल गुण ।
कथितमथ च पेयं कोष्णमंभो यदैतव्यपगतमलफेनं शुद्धिमद्वा विशिष्टं ॥ श्वसनकसनमेदश्लेष्मवातामनाशं । ज्वरहरमपि चोक्तम् शोधनं दीपनं च ॥ १६ ॥
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