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कल्याणकारके
भावार्थ:- पृथ्वी आदि भूतोंके कोपसे रोग उत्पन्न नहीं होते हैं, दोषोंके प्रकोप से ही रोग होते हैं । वर्षफलके खराब होनेसे और मंगल प्रकोप से भी रोगों की उत्पत्ति नहीं होती है । लेकिन कर्मके उदय और रोग उत्पन्न होते हैं ॥ १३ ॥
कमशांति करनेवाली निया ही चिकित्सा है ।
तस्मात्स्वकर्मोपशमक्रियाया । व्याधिशांतिं प्रवदति तदज्ञाः ॥ स्वकर्माको द्विविधो यथाव- । दुपाय कालक्रमभेदभिन्नः ॥ १४ ॥
भावार्थ: इसलिये कर्मके उपशमनक्रिया ( देवपूजा ध्यान आदि ) को बुद्धिमान् लोग वास्तव में रोगशांति करनेवाली क्रिया अर्थात् चिकित्सा कहते हैं । अपने कर्मका पकना दो प्रकार से होता है । एक तो यथाकाल पकना दूसरा उपायसे पकना ॥ १४ ॥
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afauratfare निर्जरा उपायपाको वरोरवीर- । तपः प्रकारैस्ववियुद्धमार्गः ॥ सद्यः फलं यच्छति कालपाकः ।
कालांतराद्यः स्वयमेव दयात् ॥ १५ ॥
· भावार्थ:
उत्कृष्ट वोर वीर तपस्यादि विशुद्ध उपायोंसे कर्मको जबरदस्ती से
( वह कर्मका उदय काल न होते हुए भी) उदयको लाना यह उपाय पाक कहलाता है । इससे उसी समय फल मिलता है । कालांतर में यथासमय पककर स्वयं उदयमें आकर फल देता है वह कारपाक है
अपने आयुष्यावसान में ).
१५॥
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और न कोई आदि ग्रहों के उदीरणा से ही
यथा तरुणां फलपाकयोगी । मतिप्रगल्भः पुरुषैर्विधेयः ॥ तथा चिकित्सा प्रविभागकाले । दोपप्रपाको द्विविधः प्रसिद्धः ॥ १६ ॥
भावार्थ: - जिस प्रकार वृक्षके फल स्वयं भी पकते हैं एवं उन्हें बुद्धिमान मनुष्य उपयों द्वारा भी पकाते हैं । इसी प्रकार प्रकुपित दोष भी उपाय (चिकित्सा) और कालक्रम से दो प्रकार से पक्क होते हैं ।। १६॥
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