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वातरोगाधिकारः।
(१३१)
एक वातको जीतना पडता है । अतएव सबके लिए एक ही चिकित्सा है ऐसा पूर्वाचाोका अभिमत है ॥ २० ॥
वातरक्त का निदान, सप्राप्ति व लक्षण । विदाहिरससंयुतान्यतिविदाहिकाल भृशं । निषेव्य कटुभोजनान्यतिकटूष्णरूक्षाण्यपि ॥ स्थाश्वतरवाजिवारणखगेष्ट्रवाहादिकां । चिरं समधिरुह्य शीघमिह गच्छतां देहिनाम् ॥ २१ ॥ विदाहकृतदुष्टशोणितमिहांततः पादयोः । करीति भृशमास्यशाफमखिलाङ्गदुःखावहम् ।। सवातरुधिरेण तोदनविभेदनास्पर्शने-।
विशोषणविशाषणोर्भवत एव पादौ नृणां ॥ २२ ॥ भावार्थ:-गर्मीके समययें विदाही अन्नोंको सेवन करनेसे, कटुभोजन, अतिकष्ण तथा रूक्ष आहारोंको अत्यधिक सेवन करने से, एवं रथ, घोडा, हाथी, ऊंठ आदि सवारी पर बहुत देरतक चढकर दौडानेसे रक्त विदग्ध होता है तथा वायु भी प्रकुपित होता है । वह विदग्धरक्त जिस समय वायुके मार्ग को रोक देता है तो वह अत्यधिक प्रकुपित होकर और रक्तको दूषित कर देता है । तब रक्त दोनों पादोंमें संचय होते हैं । इसीसे संपूर्ण अंगोंमें दुःख उत्पन्न करनेवाली सूजन हो जाती है । उस समय दोनों पाद तोदन, भेदन आदि पीडासंयुक्त स्पर्शनासह होते हैं और सूख भी जाते हैं । इस को वातरक्त कहते हैं ॥ २१ ॥ २२ ॥
पित्तकफयुक्त व त्रिदोषज वातरक्तका लक्षण । सपित्तरुधिरेण सोष्णमृदुशोफदाहान्वितै। शरीरतरकण्डनौ गुरुघनी च सश्लेष्मणा । सपित्तकफमारुतैरभिहते च रक्ते तथा ।
भवंति कथितामया विहितपादयोः प्राणिनाम् ॥ २३ ॥ भावार्थ:---वह यदि पित्तसे युक्त हो तो पाद उष्ण, मृदु, सूजन, व दाहसे युक्त होते हैं । यदि कफसहित हो तो खुजली से युक्त, भारी एवं घन ( सूजन होले हैं। एवं पित्त, कफ, वातसे युक्त होजाय नो तीनों विकारोंसे उत्पन्न लक्षण) उसमें पाये जाते हैं ॥ २३ ॥
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