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कल्याणकारके
भावार्थः-- -इस तरह घी पीनेवाले मनुष्यकी अग्नि तीक्ष्ण हो जाती है। अधिक बलशाली व सुवर्णके समान कांतिमान होता है, शरीरमें स्थिर व नये धातुवोंकी उत्पत्ति होती है । आमाशयादि शुद्ध होते हैं, इंद्रियां दृढ़ हो जाती है, वह शतायुषी होजाता है। शरीर सुरूप व सुडौल बनजाता है ।। २० ॥
स्नेहन के लिये अपात्र । अरोचकनवज्वरान् हृदयगर्भमूच्छीमद- । भ्रमलमकृशानमुरापरिगतानाद्रारिणः ॥ अजीर्णपरिपीडितानधिकशुद्धदेहान्नरान् ।
सबस्तिकृतकर्मणो न धृतमेतदापाययेत् ॥ ३० ॥ भावार्थ:--अरोचक अवस्थामें, नबज्वर पीडितको, गर्भवतीको, मूञ्छितको, मद, भ्रम श्रमसे युक्त, कृश, ऐसे व्यक्तिको एवं मद्य पीये हुए को, उदारीको, अजीर्णसे पीडितको, वमनादिसे अत्यधिक विशुद्ध देहवालेको, बस्तिकर्म जिसको कियागया हो उसको यह घृत नहीं पिलाना चाहिये अर्थात् ऐसे मनुष्य स्नेहनके लिये अपात्र हैं ॥ ३० ॥
__ स्वेदन का फल। अथाग्निरथिवर्द्धते मुदुतरं सुवर्णोज्वलं । शरीरमशने रुचिं निभृतगात्रचेष्टामपि ॥ लघुत्वपवनानुलोम्य मलमूत्रवृत्तिक्रमान् ।
करोति तनुतापनं सततदुष्टनिद्रापहम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:--शरीर से किसी भी प्रकार से पसीना लाया जाता है उसे स्वेदन क्रिया कहते हैं । स्वेदनसे शरीरमें अग्नि तीत्र हो जाती है । शरीर मृदु व : कांतियुक्त होजाता है । भोजनमें रुचि उत्पन्न होती है । शरीरके प्रत्येक अवयव योग्य क्रिया करने लगते हैं, शरीर हलका हो जाता है । वातका अनुलोम हो कर, मल मूत्रोंकता ठीक २ निर्गम होता है, दुष्ट निद्राको दूर करता है ॥ ३१ ॥
स्वदनके लिय अपात्र । क्षतोष्मपरिपीडितांस्तृषितपाण्डुमेहातुरा । नुपोषितनरातिसारबहुरक्तपित्तातुरान् ॥ जलोदरविपातमूर्छितनराकान् गर्भिणीं।.. स्वयं प्रकृतिपित्तरसगुणमत्र न स्वेदयेत् ॥ ३२ ॥
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