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महामयाधिकारः
भावार्थ:-प्रसृत स्त्री के योनितर्पण । योनिमें तेलसे भिजा हुआ कपडा रखना आदि ) शरीरसेक, शरीर पर तेल छिडकना वा धारा देना आदि अवगाहना, लेपन और नस्य क्रिया में पूर्वोक्त सम्पूर्ण यातह तैलोंको अथा बलातल । आगे कहेंगे । को उपयोग में लाना चाहिये । मागंश यह कि वानानादाक लेलोंके द्वारा प्रसूता स्त्रीको योनितर्पण आदि बिकि मा करनी चाहिये ।। ६३ ॥
वलातेल। क्याथ एव च बलांधिविपक्व- । पड्गुणस्सदृशदुग्धविमिश्रः ॥ कोलविल्यबृहतीदयटुंटू- । कानिमययवहस्तकुलुत्थैः ।। ६४ ॥ विश्रुतेः कृतकपाविभागः । तेलभागसहितास्तु समस्ताः ॥ तचतुर्दशमहाढक भाग । पाचयेदधिकभेषजकल्कैः ।। ६५ ॥ अष्टवर्ममधुरौषधयुक्तः । क्षीरिका मधुकचंदनमंजि-- ॥ ष्ठाश्वगंधसुरदारुशताव-- । निकुष्ठसरलस्तगरेला ॥ ६६ ॥ सारिवासुरससर्जरसाग्व्यं । पत्रशैलजजटागुरुगंधी-- ॥ ग्राख्यसैंधवयुतैः परिपष्टैः । कल्किनैस्समशृतैस्सहपकम् ॥६७।। साघुसिद्धमवताय सुतैलं । राजते कनकमृण्मयकुंभे ॥ सनिधाय विदधीत सदेदं । राजगजसदृशां महतां च ।। ६८ ॥ पाननस्यपरिपेकविशेषा- । लेपबस्तिषु विधानविधिज्ञैः ॥ योजितं पवनपित्तकमाथा- । न्नाशयेदखिलरोगसमूहान् ॥ ६९॥
भावार्थ:---- तेलसे षड्गुण बलामूलका काय व दूध एवं तेलका समभाग बेर, बेल, दोनों कटेली, टुंटक, अगेथु, जौ, गुलथी इनके कषाय यः चतुर्दश आढक प्रमाण तिलका तेल लेकर पकाना चाहिये । उसमें अष्टवर्ग ( काकोली, क्षीर काकोली, मेदा, महामेद, ऋद्धि, वृद्धि, जीवक, ऋषभक ) मधुरौषधि, अकौवा, मुलैठी, चंदन, मंजीठ असगंध, देवदारु, शतावरीमूल, कूट, धूपसरल, तगर, इलायची, सारिवा, तुलसी, राल, दालचीनीका पत्र, शैलज नामक सुगंवद्रव्य [ भूरिछरील ] जटामांसी, अगरु, वचा, सैंधानमक इनको पसिकर तैल से चतुर्थांश भाग कल्क उस तेल में डालकर पकाना चाहिये । जब वह तेल अच्छीतरह सिद्ध हो जाय तो उसे उतारे । फिर उसे चांदी सोने अथवा मट्टीके घडेमें रखें । वह राजाधिराजों व तत्सदृश महान पुरुषों को उपयोग करने योग्य है । इस तैलको पान, नस्य, सेक, आलेपन, बस्ति आदि विधांनो
१ अवगाहन आदिका स्वरूप पहिले लिख चुके हैं।
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