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कल्याणकारके
भावार्थ:--भगंदर व्रण में लोहशलाका डालकर, भगंदर और उसके आधार को शस्त्र से विदारण करके अग्नि से जलावें । अथवा क्षारपातन करें। इस प्रकार, शस्त्र प्रयोग आदि करने के बाद, उस व्रण ( घाव ) को, व्रणोपचार पद्धति से शोधन ( शुद्ध करनेवाली ) रोपण ( भरनेवाली) औषधियों द्वारा चिकित्सा करें। अर्थात् रोपण करें ॥ ५५ ॥
भगंदर छेदन क्रम। यदैवमन्योन्यगतागतिर्भवेत् । तदैकदा छेदनमिष्टमन्यथा ।। क्रमक्रमेणैव पृथक्पृथग्गतिं । विदारयेद्यन्न बृहदणं भवेत् ॥ ५६ ॥
भावार्थ:-जब भगंदरोंकी गति परस्पर मिली हुई रहें तब उनको एक बार ही छेदन करना चाहिये । जिनकी गति पृथक् २ है परम्पर मिली नहीं है उनको क्रम २ से विदारण करें अर्थात् एक भरने के बाद दूसरे को । दूसरा भरने के बाद तीसरे को दारण करें । ऐसा करने से व्रण बड़ा नहीं हो पाता है ॥ ५६ ॥
बृहत्वणका दोष व उसका निषेध । बृहद्रणं यच्च भवेद्भगंदरम् । तदैव तस्मिन्मलमूत्ररेतसाम् ।। प्रवृत्तिरुक्ता महती गतिस्ततो । भिषग्विमुख्यैरपि शस्त्रकर्मवित् ॥५५॥ ततो न कुर्याद्विवृतं व्रणान्वितं । भगंदरं तत्कुरुते गुदक्षतिम् ॥ स शूलमाध्मानमथान्यभावतां । करोति वातःक्षतवक्त्रनिर्गतः ॥५८॥
भावार्थः-जिस भगंदर में ( शस्त्र कर्मके कारण ) व्रण ( घाव ) बहुत बडा होजाता है उस व्रण मार्ग से मल, मूत्र, शुक्र वाहर निकल ने लगते हैं। जिस से भगंदर की गति और भी महान होजाती है ऐसा भिषश्वरोंने कहा है । इसलिये शस्त्रकर्म को जानने वाले वैद्य को चाहिये कि वह शस्त्र कर्म करते समय भगंदर के व्रण (घाव ) को कभी भी बडा न बनावें । यदि बंढ जावें तो वह गुदाको (विदारण) कर देता है । उस क्षतगुदाके मुख से निकला हुआ बात शूल, आध्मान ( अफरा ) को करता है ५७ ॥ ५८ ॥
अतः प्रयत्नादतिशोफभेदतां । विचार्य सम्यग्विदधीत भेषजम् ॥ विधीयते छेदनमर्धलांगल- । प्रतीतगोतार्थसमाननायकम् ।।५९।।
१ यहां शस्त्र, आमे व क्षार कर्म बतलाया है । इन सब को एक ही अवस्था प्रयोग करना चाहिये । अवस्थांतर को देखकर प्रयोग करें।
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