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क्षुद्ररोगाधिकारः ।
(२७७)
पकाये हुए तेल या घी अथवा दोनों को भगंदरत्रण में उपयोग करना चाहिये । उसले का शोधन और रोपण हो जायगा । एवं रोग भी दूर होगा ।। ६५ ।। ६६ ।। ६७ ।। उपरोक्त तैल घृतका विशेष गुण ।
तदेव दुष्टार्बुदनाडिकांकुर । स्तनक्षतेष्वद्भुतपूतिकर्णयोः ॥ प्रमेहकुष्ठणकच्छ्रददुषु । क्रिमिष्वपीष्टं प्रथितापचीष्वलम् || ६८ ॥ भावार्थ:- उपरोक्त तेल व तृत, दुष्टअर्बुदरोग, नाडीव्रण, अर्श, स्तनक्षति, विडिका, पूर्ति, कर्णरोग, प्रमेह, कुष्ट, कच्छु, दहु, अपचि, और क्रिमिरोगोंके लिये हितकर है ॥ ६८ ॥
हरीतक्यादि चूर्ण |
हरीतकी रोहिणि सैंधवं वचा । कटुत्रिकं श्लक्ष्णतरं विचूर्णितं ॥ पिबेत्कुलत्थोद्भवतक्रांजिकां । द्रवेण केनापि युतं भगंदरी ॥ ६९ ॥
भावार्थ:-- हरड, कुटकी, सैंधालोण, बचा, त्रिकटु, इन औषधियोंको महीन चूर्णकर उसे कुलथी व छाछकी कांजी में मिलाकर किसी द्रवके साथ भगंदरी पीवें जिस से वह सुखी होता है ॥ ६९ ॥
भगंदर में अपथ्य |
व्यवायदूराध्वगमातिवाहन- । प्रयाणयुद्धाद्यभिघातहेतुकम् || त्यजेद्विरूढोपि भगंदरवणी । मासद्वयं बद्धपुरीषभोजनम् ॥ ७० ॥
भावार्थ:- - भगंदर व्रण अच्छा हो जाने पर भी ( भर जानेपर भी ) दो महीने तक भगंदरी मैथुनसेवन, दूरमार्ग गमन, घोडे आदि सवारीपर बैठकर अधिक प्रयाण, युद्ध [ कुस्ती आदि ] आदि आघात ( चोट लगने ) के लिये कारणभूत क्रियाओंको न करें । एवं गाढामल होने योग्य भोजन भी नहीं करना चाहिए, दो महिनेतक आहार नीहारकी योग्य व्यवस्था रखें ॥ ७० ॥
अश्मरी आदिके उपसंहार ।
इति क्रमादुद्धतरोगवल्लभा । नसाध्यसाध्यप्रविचारणान्वितान् ॥ निगद्य तलक्षणतच्चिकित्सितान् । ब्रवीम्यतः क्षुद्ररुजागणानपि ॥ ७१ ॥ भावार्थ:- :- इस प्रकार क्रमसे बडे २ रोग उनका लक्षण, साध्यासाध्यीवचार उनकी चिकित्सा आदि बातोंको कहकर अब क्षुद्ररोगों के विषयमें कहेंगे ॥ ७१ ॥
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