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( २८४ )
कल्याणकार
सकलतनुगतो वा मध्यदेहेऽर्धदे । श्वयथुरतिसुकष्टः क्लिशुष्केतरांगः ॥ ३ ॥
भावार्थ:
: वह सूजन दो प्रकारकी होती है। एक नियत अवयव में होनेवाली और दूसरी सर्वांगीण । सर्व अंगमें फैली हुई तथा शरीरके मध्यभाग अथवा अर्ध शरीर में सूजन होकर अन्य अवयव सूख गये हों ऐसे शोथ रोग कठिन साध्य होते हैं ॥ ३ ॥
विधि ग्रंथिपटकालक्षण व चिकित्सा | श्वयथुरितिविशालो विद्रधिः कुंभरूपो | मुखरहिततया ते ग्रंथयः संप्रदिष्टाः || मुखयुतपिटकाख्याः शोफकालेऽनुरूपे - । रुपनहनविशेषैः साधनैः साधयेत्तान् ॥ ४ ॥
भावार्थ:- जो शोध विशाल हैं और कुम्भके समान है वह विद्रधि कहलाता
पिटक कहलाते हैं । इन आदि बांधकर एवं और
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है । जिनको मुख नहीं होता वे ग्रंथियां हैं और मुखसहित 'सब शोफभेदोंकी यथ काल तदनुकूल औषषियों द्वारा पुल्टिश भी उपायोंसे चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ४ ॥
उपदेशका असाध्य लक्षण । ज्वरयुतपरिदाहश्वास तृष्णातिसार - । प्रकटबलविहीना रोचकोद्गारयुक्तः ॥ यमसदनमवाप्नोत्याशु शून्यांगयष्टिः । यममसकुदनूनं द्रष्टुकामो मनुष्यः ॥
अत्यंत क्षीण होगया हो अरोचकता व उद्वार से
भावार्थ:-- उपदेशका उदेक तीव्र होकर जो रोगी फिर वह ज्वर, दाह, श्वास, तृषा, अतिसार, अशक्तपना, पीडित हो और जिनका शरीर बिलकुल शून्य होगया हो तो समझना चाहिये कि वह यमको बहुत उत्सुकताके साथ देखना चाहता है । इसलिये जल्दी से जल्दी वह यमके घर पहुंच जायगा ॥ ५ ॥
५ ॥
दंतोद्भव उपदंश चिकित्सा | निशितविषमदन्तोद्वहनात् मेद्जात- । क्षतयुतमुपदेशात्यंतशोकं यथावत् ॥ शिशिरघृत पयोभिः साधयेदाशु धीमान् । अतिहिमबहुभैषज्यैरवहि मलिपेत् ॥ ६ ॥
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