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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(२८३)
अथ चतुर्दशपरिच्छेदः।
अथ उपदंशाधिकारः।
मंगलाचरण व प्रतिज्ञा। जिनमनघमनंतज्ञाननेत्राभिरामं । त्रिभुवनमुखसंपन्मूर्तिमत्यादरेण ॥ प्रतिदिनमतिभक्त्याऽनम्य वक्षाभ्युदारं ।
ध्वजगतमुपदशख्यातशूकाभिधानम् ॥१॥ भावार्थ:-सर्व पाप कर्मों से रहित, अनंतज्ञानरूपी नेत्रसे शोभायमान, तीन लोक .के संपत्ति के मूर्ति स्वरूप श्री जिनेंद्र भगवान्को अत्यंत आदर के साथ अति भक्ति से नमस्कार कर मेढ़ पर होनेवाले उपदंश व शूक रोगोंको प्रतिपादन करेंगे ॥१॥
उपदंश चिकित्सा। वृषणविविधवृद्धिमोक्तदोषक्रमेण ॥ प्रकटतरचिकित्सां मेहनोत्पन्नशोफे ॥ वितरतु विधियुक्तां चोपदंशाभिधाने ।
निखिलविषमशोफेष्वेष एव प्रयोगः ॥ २॥ भावार्थः ---अण्डवृद्धि के प्रकरण में भिन्न २ दोषोत्पन्न वृद्वियों कि जिस प्रकार ... भिन्न .२ प्रकार का चिकित्साक्रम बतलाया था, उन सब को लिंग में उत्पन्न उपदंश . . नामक शोथ ( सूजन ) में भी दोषभेदों के अनुकूल उपयोग करें। एवं अन्य सर्व प्रकार के भयंकर शोथो में भी इसी चिकित्सा का उपयोग करें ॥२॥ .
.... दो प्रकारका शोथ।
स भवति खलु शोफो द्विमकारो नराणा- । पवयीनयतोऽन्यः सर्वदेहोद्भवश्च ॥
लिंग को हाथ के आघात से, नाखून व दांत के लगनेसे, अच्छीतरह साफ न करनेसे, अत्यंत विषयोपभोग से, एवं विकृत योनिवाली स्त्री के संसर्ग [ मैथुन] से, शिभेद्रिय [लिंग] में शोध ( कुलथी धान्य के आकार वाले फफोले उत्पन्न होते है उसे उपदेश अर्थात् गर्मीरोग कहते है। बातज, पित्तज, रसज, काज, सन्निपानज इस प्रकार उसके पांच भेद आयुर्वेद में वर्णित हैं।
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