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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(२७३) भावार्थ:-यदि इस भगंदर रोगीकी उपेक्षा करें तो वह तीनों दोषों से संयुक्त हो कर, उस का परिपाक होता है। भगंदर के मार्ग [ मुख ] से शुक्र, मट, मूत्र, और वायु बाहर आने लगते हैं । एवं उस में नाना प्रकार के मुख से संयुक्त वणोंकी उत्पत्ति होकर, उन व्रणों के मुख से क्रिमी पडने लगते हैं । अर्थात् क्रिमि भी पेदा होते हैं ॥ ५१ ॥
भगंदर का असाध्य लक्षण । पुरीषमत्राक्रिमिवातरेतसां । प्रवृत्तिमालोक्य भगंदरवणे ।। चिकित्सकस्तं मनुजं विवर्जये- । दुपद्रवैरप्युपपन्नमुद्धतैः ॥ ५२ ॥
भावार्थ:-भगंदर के मुखसे मल, मूग, वात, वीर्य, किमि आदिकी प्रवृत्तिको देखकर एवं भयंकर उपद्रवोंके उद्रेक को देखकर चिकिसकको उचित है कि वह भगंदर रोगीको असाध्य समझकर छोडें ॥ ५२ ॥
भगंदर की अंतर्मुखवहिर्मुखपरीक्षा । तथा विपक्षेषु भगंदरेष्वतः । प्रतीतयत्नाद्गुदनांकुरेष्विव । . प्रवेश्य यंत्रम् प्रविधाय चैषणीं । बहिर्मुखांतर्मुखतो विचारयेत् ॥ ५३ ॥
भावार्थः--उपरोक्त भगंदरोंसे विपरीत अर्थात् असाध्यलक्षणोंसे रहित भगंदर रोग को, अर्शके समान ही अत्यंत यत्नके साथ यंत्रको अंदर प्रवेशकर ऐषणी ( लोह की शलाका ) को अंदर डालकर भगंदरका मुख अंतर्गत है या बहिर्गत है इसको अच्छीतरह विचार करना चाहिये ॥ ५३ ॥
भगंदर यंत्र । यथार्शसां यंत्रमुदाहृतं पुरा । भगंदराणां च तथाविधं भवेत् ॥ अयं विशेषोऽर्धशशांकसन्निभं । स्वर्णिकायां प्रतिपाद्यते बुधैः ॥५४॥
भावार्थ:----जिस प्रकार पहिले अर्शगेगोलिय यंत्र बतलाये गये हैं वैसे ही यंत्र भगंदरकेलिये भी होते हैं । परंतु इतना विशेप विद्वानों द्वारा कहा जाता है कि इसमें कार्णका अर्थचंता कृति की होनी चाहिये ॥ ५४ ।।
भगंदरमें शत्राग्निक्षारमयोग । अथैपीमार्गत एव साशयं । विदार्य शस्त्रेण दहेत्तथाग्निना ॥ निपातयेत्क्षा रमपि वणक्रियां । प्रयोजयेच्छोधनरोपणौषधैः ॥ ५५ ॥
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