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महामयाधिकारः।
(२६३)
भावार्थ:-केवल कफ से उत्पन्न अश्मरी [ पथरी ] भारी व सफेद होती है। जब इससे मूत्रद्वार रुक जाता है तो बस्ति भारी हो जाती है और वह बस्ति को फोडने जैसी पीडा को उत्पन्न करती है ॥ ७ ॥
पत्तिकाश्मरीलक्षण । कफस्सपित्ताधिकतामुपागतः । करोति रक्तासितपीतसप्रभाम् । अरुष्करास्थीप्रतिमामिहाश्मरी । मणध्यसो स्रोतसि मूत्रमास्थिता ॥८॥ स्वम् यातादिहबस्तिरूप्मणां । विदह्यते पच्यत एव संततम् । सदाहदेही मनुजस्तृषाहतः । सदोष्मवातैरपि तप्यते मुहुः ।। ९ ॥
भावार्थः----अधिक पित्तयुक्त कफ से उत्पन्न होनेवाली अश्मरी का वर्ण लाल, काला ब पीटा होता है। भिलावे की गुठली जैसी उसकी आकृति होती है । यह मूत्र मार्ग में स्थित होकर मूत्र को रोकती है । मूत्रके रुक जानेसे, उष्णता के द्वारा बस्ति में अयंत जलन होती है और उसको अधिक पास लगती है । वह बार २ उष्णवात से भी पीडित होता है ॥ ८ ॥२॥
वातिकाश्मरीलक्षण । बलास एवाधिकवातसंयुतो । यथोक्तमार्गादभिवृद्धिमागतः ॥ करोति रूक्षासितकण्डकाचितां । काबपुष्पप्रतिमामथाश्मरीम् ॥ १० ॥ तया च वस्त्याननरोधतो नरो । निरुद्धमत्रो बहुवेदनाकुलः ॥ असह्य दुःखश्शयनासनादिषु । प्रतिक्रियाभावतया स धावति ॥११॥. स नाभिमेद्रं परिमर्दयन्मुहुः । गुर्देऽगलि निक्षिपति प्रपीडया ॥ स्वदंतयत्रं प्रविधाय निश्चलं । पतत्यसो भुग्नतनुर्धरातले ॥ १२ ॥
भावार्थ:-- अधिक वायुसे युक्त काफम उत्पन्न व वृद्धि को प्राप्त अश्मरी रूक्ष, कालेवर्णसे युक्त कंडरों में व्याम एवं कदंब पुष्पको सगान रहता है इस से जब बस्तिका मुख रुकामाता है, तो मत्रा भी रुक जाता है। जिससे । उसको बहुत वेदना होती है। सोनेमें बैठने आदिम उम रोग को असह्य दुःख होता है। एवंच उसके उपशम केलिगे कोई उपाय न रहनेसे वह विह्वल होकर इधर उधर दौडता है । उस पीडाले पीडित होकर बह रोगी अपने नामि व लिंगको वार २ गर्दन करता है एवं गमें अंगुलि डालता है । एवं अधिक वेदना होनेसे अपने दांतोंको चावकर निश्चलतासे मूच्छितसा होकर जमीनमें पड़ा रहता है ॥१० ॥११ ।। १२ ।।
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