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(२६८)
कल्याणकारके
अजदुग्धपान । मुभृष्टसदृकणचूर्णामिश्रितं । पिबेदनाहारपरो नरस्सुखम् ॥ अजापयस्सोष्णतरं सशर्करं । भिन्नत्ति तच्छर्करया सहाश्मरीम् ॥३१॥
भावार्थ:--संपूर्ण आहारको त्यागकर बकरीके गरम दूधमें शक्कर और सुहागेके चूर्णको मिलाकर अनेक दिन पी तो शर्करा और अश्मरी रोग दूर होते हैं ॥३१॥
नृत्यकाण्डादि कल्क ! सनृत्यकाण्डोद्भवबीजपाटली । त्रिकष्टकानामपि कल्कमळितम् ॥ पिवेदधिक्षीरयुतं सशकरं । सशर्कराइमर्यतिभेदकृद्भवेत् ॥ ३२ ॥
भावार्थ:-नृत्य काण्डका बीज ( ? ) गोखरू, पाटल इनका कल्क बना कर उस में दूध, दही व शक्कर अछीतरह मिलाकर पीवें तो शर्करा और अश्मरी को शीघ्र भेदन करता है ॥ ३२ ॥
तिलादिक्षार। तिलापमार्गेझुरतालमुकक । क्षितीश्वराख्यांघ्रिपकिंशुकोद्भवम् ॥ मुभस्मानश्राव्य पिबेत्तदश्मरी | शिलाजतुद्राविलमिश्रित जयेत् ॥ ३३ ॥
भावार्थ:-तिल, चिरचिरा, गोखरू, ताल, मोखा, अमलतास, किंशुक इन वृक्षोंको अच्छीतरह भस्मकर उसको पानी में घोलकर छानलेवें। उस क्षार जल में शिलाजीत, और विडनमक मिलाकर पीये तो यह अश्मरी रोग को जीत लेता है ॥ ३३ ॥
यथोक्तसद्भेषजसाधितःघृतैः । कषायसक्षारपयोऽवलेहनैः ।। सदा जयेदश्मतराइमरी भिषग् । विशेषतो बस्तिभिरप्यथोत्तरैः ॥३४॥
भावार्थ:---इस प्रकार ऊपरके कथनके अनुसार अनेक अश्मरी नाशक औषधियोंसे सिद्ध घृत, कषाय, क्षार, दूध व अवलेहों के द्वारा विशेष कर उत्तरबैस्ति के प्रयोग से वैद्य पत्थरसे भी अधिक कठिन अश्मरी रोग को जीते ॥ ३४ ॥
उत्तरबस्ति विधान। अतः परं चोत्तरवीस्तरुच्यते । निरस्तबस्त्यामयवृंदबंधुरा ॥ प्रतीतनेत्रामलबस्तिलक्षण- । द्रवप्रमाणैरपि तत्क्रियाक्रमैः ॥ ३५ ॥
भावार्थ--उत्तर वस्ति बस्ति ( मूत्राशय) गत सम्पूर्ण रोगोंको जीतने वाली है। १ जो लिंग व योनि में अस्ति [ पिचकारी ] लगायी जाती हैं उरे उत्तरबस्ति, कहते हैं।
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