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भुइरोगाधिकारः।
(२६९)
इसलिये यहां से आगे, नेत्र ( पिचकारी ) व बस्ति का लक्षण, प्रयोग करने योग्य द्रवप्रमाण, और प्रयोग करने की विधि आदि उत्तरबस्ति संम्बधि विषय का वर्णन करेंगे ॥ ३५॥
पुरुषयोग्यनेत्रलक्षण । प्रमाणतोऽष्टांगुल नेत्रमायतं । सुवृत्तसुस्निग्धसुरूपसंयुतम् ॥ सुतारनिर्मापितमुलकार्णकं । सुमालतीवृन्तसमं तु सर्वथा ।। ३६ ।।
भावार्थः ---बह बस्ति, आठ अंगुल लम्बी, गोल, कोमल व सुंदर चांदी आदि धातुओं द्वारा निर्मपित, मूल में कर्णिका से संयुक्त एवं चमेलीपुष्प के डंठल के समान होनी चाहिये। यह नेत्रनमाण व लक्षण पुरुषोंको प्रयुक्त करने योग्य नेत्रका है ॥ ३६॥
कन्या व स्त्रीयोन्य नेत्र लक्षण । तदर्धभागं सबृहत्सुकणिकं । सबस्तियुक्तं प्रमादाहितं सदा ॥ तथांगुलीयुग्मनिविष्टकणिक । तदेव कन्याजननेत्रमुच्यते ॥ ३७ ॥
भावार्थ:-स्त्रियों के लिये नेत्री, चार अंगुल लम्बा व बडी कर्णिका से संयुक्त होना चाहिये । कन्याओं के लिये प्रयोग करने योग्य नेत्र दो अंगुल लम्बा एवं कर्णिकायुक्त होना चाहिये । उपरोक्त तीनों प्रकार के नेत्र बस्ति से संयुक्त होना चाहिये ॥ ३७ ॥
द्रवत्रमाण। द्रवप्रमाणं प्रसृतं विधाय तत् । कषायतैलाज्यगुणेषु कस्यचित् ।। प्रयोज्यतां बस्तिम/दुलिप्तया । शलाकया मेद मुखं विशोध्य तम् ॥३८॥
भावार्थ:----बस्ति में, कपाय, तेल, बी इत्यादिमें से किसी भी चीज (द्रव) को प्रयोग करना हो, उस की अधिक से अधिक मात्रा एक प्रसृत (साट तोला) प्रमाण है। बस्ति प्रयोग करनेके पहिले कपूर से लेपन किये गये, पतले शला का [ सलाई ] को, अंदर डालकर, शिश्नेंद्रिय के मुख को साफ कर लेनी चाहिये ।। ३८ ॥
उत्तरबस्तिसे पूर्वपञ्चाद्विधेयविधि । प्रपीडयत्त प्रथमं विधानवित् । नियोजयेदुत्तरवस्तिमूजिताम् ॥ ततोऽपराण्हे पयसा च भोजयेत् । अतो विधास्ये वरवस्तिसक्रियाम् ॥३९॥ १ यह रोगी के हाथ का अंगुल है।
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