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(२६६)
कल्याणकारके
सकोलविल्वैवरणाग्निमंथकैः । सुवर्चिकासंधवहिंगुचित्रकैः ॥ कषायकल्कैःपरिपाचितं घृतं । भिन्नत्ति तद्वातकृतां महाश्मरीम् ॥२२॥"
भावार्थ:--अश्मरी रोगको उत्पत्ति होते ही उस मनुष्यको वमन विरेचन आदिसे शोधन करना चाहिये । फिर उसे पाषाण भेदी शिलाजित शतावरी गोखरू पाढल, गोखरू, खस, पलाश, शगुन, कूडाकी छाल, तगर, विरेटो, सहदेई, ब्राह्मी, छोटीकटेली, बडीकटे ली, जौ, कुलथी, निर्मली वोज, बदरफिल [ बेर ] बेल, वरना, अगेथु, यवक्षार, सेंवालोण, हींग, चीता की जड इनके कषाय व कल्क से सिद्ध किये हुए घृत को पिलावें । वह बातज महा अश्मरी [ पथरी ] संगको दूर करता है ॥२०॥२१॥२२॥
वाताश्मरीके लिये अन्नपान । यथोक्तसद्भेषजसाधितोदकः । कृता यवागूः सविलेप्य सत्खला- ॥ पयांसि संभक्षणभाज्यपानका- । नपि प्रदद्यादानलाश्मरीष्वलम् ।।२३॥
भावार्थः ---वाताइमरी से पांडित व्यक्तिको उपरोक्त [वाताइमरी नाशक ] श्रेष्ठ औषधियों द्वारा साधित जल से किया हुआ युवागू , विलेपी खलंयूष एवं ( उन्हीं औषवियों से सिद्ध ) दूध, भक्ष्य, भोज्य और पानक को भक्षण भोजनादिके लिये प्रदान करना चाहिये ॥ १३ ॥
पित्ताश्मरी नाशक योग । सकाशदभात्कटयोरटाइममि- । त्रिकप्टकैस्सारिवया सचंदनः ॥ शिरीषधत्तरकुरण्टकाशमी- । वराहपाठाकदलीविदारकैः ॥ २४ ॥ सपुष्पकूष्माण्डकपक्षकात्पल- । प्रतीतकोवारुकतुं विविधिका-॥ विपकसत्रायुषबीजसंयुतैः । त्रिजातकश्शातलमृष्टभेषजः ॥ २५ ॥ कृतैः कषायैस्सघृतस्सश करैः । पयोगणैर्भक्षणपानभोजनैः ॥ प्रयोजितैः पित्तकृताश्मरी सदा । विनश्यति श्रीरिव दुष्टमंत्रिभिः ॥२६॥
भावार्थ:----का :, दर्भ, रामसर [ भद्रमुज ] ईश्वका जड, पासणभेदी, गोखरु; सारि वा ( अनंतमूल ) चंदन, सिरस, चतूरा, पीली कटसरैया, छौंकरा, नागरमोथ', पाठा, केलेका जड, विदारक ( जलके मध्यस्थ वृक्षावशेष ) नागकेशर, कूष्माण्ड ( सफेद कद्दू ) कमल, नलिकमल, काडी का बीज, तुम्बी [ लोकि] कुंदुरु, पके हुए खीरे का बीज,
१ कैथ इमली, मिरच, चित्रक, बेलगिरी और जीरा इनको डालकर सिद्ध किये हुए यूष को लखयूष कहते हैं।
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