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भहीमयाधिकारः
(२६१)
अथ त्रयोदशपरिच्छेदः
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अध शर्कराधिकारः
संगलाचरण व प्रतिज्ञा। समस्तसंपत्सहिताच्युतश्रियं ! प्रणम्य वीरं कथयामि सक्रियाम् ॥ - सशर्करामद्भुतवेदनाश्मरी-- ! भगन्दरं च प्रतिसर्वयत्नतः॥ १॥ .. .. भावार्थः---अंतरंग व बहिरंग समस्त संपत्तियोंसे युक्त अक्षयलक्ष्मीको प्राप्त श्रीवीरजिनेश्वरको प्रमाग कर, शर्करा, अत्यंत वेदना को उत्पन्न करनेवाली असाही और भगंदर इन रोगोंके स्वरूप व चिकित्माको यत्नपूर्वक कहूंगा, इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥
बस्तिस्वरूप। कटित्रिकालबननाभिवंक्षण-। प्रदेशमध्यस्थितबास्तसंज्ञितम् ॥ अलाबुसंस्थानमधोमुखाकृतिम् । कफःसमूत्रानुगतो विशत्यतः ॥ २ ॥
भावार्थ:-कटि, त्रिकास्थि, नाभि, राङ इन अवयवोंके बीचमें तूंबकि आकारमें, जिसका मुख नीचेकी ओर है ऐसा बस्ति ( मूत्राशय ) नामक अवयय है। उसमें जब मूत्रके साथ कफ जाये उस समय ॥२॥
शर्करा संप्राप्ति । नवे घटे स्वच्छ जलप्रपूरिते । यथात्र पंकः स्वयमेव जायते ॥ कफस्तथा पस्तिगतोष्मशोषितो । मरुद्विर्णिः सिकतां समावहेत् ॥३॥
भावार्थ:--जिस प्रकार नये घडेमें नीचे कीचड अपने आप जम जाता है उसी प्रकार बस्तिमें गया हुआ कफ जमकर उष्णतासे सूखकर कडा हो जाता है वह वातके द्वारा टुकडा होकर रेती जैसा बनजाता है तभी शर्करा रोगकी उत्पत्ति हो जाती है अर्थात् इसीको शर्करा रोग कहते हैं ॥ ३ ॥
शर्करालक्षण । स एव तीवानिलघातजझरा । द्विधा त्रिधा वा बहुधा विभेदतः। . कफः कविंक्षणबस्तिशेफसां । स्वमूत्रसंगाद्वहुवेदनावहः ॥ ४ ॥
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