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( २५६ )
कल्याणकारके
भावार्थ:- - जो अर्श अदृश्यरूप से हो अर्थात् अंदर हो तो कुशल वैद्यको उचित है कि वह रोगीको प्रतिदिन प्रातःकाल भिलावा व हरडके चूर्ण को गुडके साथ मिलाकर खानेको देवें । इस प्रकार सौ पल चूर्ण उप्टे खिलाना चाहिये ॥११७॥
अर्शनयोगद्वय |
प्रातरेवमभयाग्निकचूर्ण - संघवेन सह कांजिकया गो- ! मूत्रसिद्धमसकृत्प्रपिवेद्वा । तत्र साधितरसं खरभूषात् ॥ ११८ ॥
भावार्थ:- प्रातः काल में हरड, चीताकी जड, सेंधानमक इनके चूर्ण को गोमूत्रले भावना देकर कांजी के साथ बार २ पीना चाहिये । अथवा गोमूत्र से सिद्ध किये गये, खरबूजेके कषाय को पीना चाहिये ॥ ११८ ॥
चित्रकादि चूर्ण |
चित्रावित रवीजैः । क्षुण्णसत्तिलगुडं सततं तत् ॥ भक्षयन् जयति सर्वजदुनी - । मान्युपद्रवयुतान्यपि मर्त्यः ॥ ११९॥
भावार्थ:--- चित्रक की जड व भिलावेके बीजके साथ तिल व गुडको कूटकर जो रोज भक्षण करता है वह सन्निपातज व उपद्रवसहित अर्शको भी जीत लेता है अर्थात् वे उपशम होते हैं ॥ ११९ ॥
अनाशकतक |
श्लक्ष्णपिष्टवर चित्रक लिप्ता - । भ्यन्तराभिनवनिर्मलकुंभे ||
न्यस्ततत्रमुपयुज्य समस्ता- । न्यर्शसां शमयतीह कुलानि ॥ १२० ॥
भावार्थ:- चित्रकको बारीक पीसकर एक निर्मल घडा लेकर उसके अंदर उसे लेपन करें । ऐसे घडेमें रखे हुए छाछ को प्रतिनित्य सेवन करें तो अर्शरोग उपशमन होता है ॥ १२० ॥
सूरण मोदक |
सत्मान्मरिचनागरविख्या- । ताग्निकप्रकटसूरणकन्दान ॥
उत्तरोत्तर कृतद्विगुणांशान् । मर्दितान् समगुडेन विचूर्णान् ॥ १२१ ॥ मोदकान्विदितानष्परिहारान् । भक्षयन्नधिकमृष्टसुगंधान् ॥ दुर्जयानपि जयत्यतिगर्भा - । दर्शसां सकलरोगसमूहान् ॥ १२२ ॥
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