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महामयाधिकारः।
(२५७)
.. भावार्थ:-मिरच, सोंठ, भिलावा व सूरणकंद इनको क्रमसे द्विगुणांश लेकर सबको एक साथ पीसे । उसके बाद इनके बराबर गुड लेवें । इन दोनोंको मिलाकर बनाया हुआ रुचिकर व सुगंध मिठाईको ( लाडू ) जो रोज खाते हैं उनके कठिनसे कठिन अर्श भी दूर होते हैं । इसके सेवन करते समय किसी प्रकारकी परहेज करनेकी जरूरत नहीं है ॥ १२१ ॥ १२२ ॥
तऋकल्प
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तक्रमेव सततं प्रपिवेद- । त्यम्लमन्नरहितं गुदजघ्नम् ॥ श्रृंगवेरकुटजाग्निपुन - । सिद्धतोयपरिपक्कपयो वा ।। १२३ ॥
भावार्थ:--अर्श रोगीको अन्न खानेको नहीं देकर अर्थात् अन्नको छुडाकर केवल आम्ल छाछ पीनेको देना चाहिये अथवा अदरख, कूट, चित्रक, पुनर्नवा इनसे सिद्ध जल व इन औषधियोंसे पकाये हुए दूध पीनेको देना चाहिये ॥ १२३ ॥
. अर्शनाशक पाणितक । तत्कषायमिह पाणितकं कृ- । त्वाग्निकत्रिकटुजीरकदीप्य-- ॥ ग्रंथिचव्यविहितप्रतिवाप्यं । भक्षयेद्गुदगदांकुररोगी ॥ १२४ ॥
भावार्थ:- उपर्युक्त कषायको पाणितक बनाकर उसमें चित्रक, त्रिकटु ( सोंठ, मिरच, पीपल ) जीरक, अजवाईन, पीपलामूल, चाव इनका करुक डालकर अर्श रोगी प्रतिनित्य भक्षण करें ॥ १२४ ॥
पाटलादियोग। पाटलीकबृहतीद्वयपूति- । कापमार्गकुटजानिपलाश-॥ क्षारमेव सततं प्रपिबेहु- । मिरोगशमनं श्रुतमच्छम् ॥ १२५ ॥
भावार्थ:----पाढ, दोनों कटेली, पूतीकरंज, लटजीरा, कुडाकी छाल, चित्रक व पलाश इनके क्षार अथवा स्वच्छ कषायको सतत पीनेसे अर्शरोग उपशम होता है ॥ १२५ ॥
अर्शन्न कल्क। कल्कमेव नियतं प्रपिवेत्ते-। पां कृतं दधिरसाम्लकतकैः ॥ क्षारवारिसहितं च तथाढ- । नामनामसहितामयतप्तः ॥ १२६ ।।
१-१ तोला काली मिरच, २ तोला सोंठ ४ तोला भिलावा ८ तोला सूरणकंद (जमीकंद इनको बारीक चूर्ण करें और १५ तोला गुडकी चासनी बनाकर ऊपरके चूर्ण को मिलावे लाडू या वर्षी तैयार करें । ३३
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