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वातरोगाधिकारः।
(१४१)
विचार किए हुए विषयको ही ग्रहण करते हैं। क्यों कि विस्तृत विषयको भी संक्षेप व सुलभता से जानने केलिए परमागम ही साधन है ॥ ४७ ॥
वस्तिनेत्रलक्षण । दृढातिमृदचर्मनिर्मितनिराम्वच्छागल- । प्रमाणकुडवाष्टकद्रवमितोरुवस्त्यन्वितम् ॥ षडष्टगुणसंख्यया विरचितांगुलीभिः कृतं ।
त्रिनेत्रविधिलक्षणं शिशुकुमारयूनां क्रमात् ॥ ४८ ॥ . भावार्थ:----निरूह व अन्वासन बस्ति देने के लिये एक ऐसी नेत्रा ( पिचकारी ) बनायें जो मजबूत व मृदुचर्म से निर्मित, छिद्रहित बस्ति से संयुक्त हो, जिस में आठ कुडन (१२८ तोले) (?) द्रव पदार्थ मासके, जिसकी लम्बाई, बालकोंके लिये ६ अंगुल, कुमारोंके लिये ८ अंगुल, जवानों के लिये १० अंगुल प्रमाण हो ॥४८॥
तथैकनयरत्नभेदगणितांगुलीसंस्थिता- । क्रमोन्नतसुकर्णिकान्यपि कनिष्ठिकानामिका ॥ स्वमध्यमवरांगुलात्मपरिणाहसंस्कारिता-।
न्यनिंद्यपशुबालधिप्रतिमवतुलान्यग्रतः॥४९॥ भावार्थ:-बस्तिनेत्र ( पिचकारी) के अग्रभाग में एक गोल कणिका होनी चाहिये जिसका प्रमाण ( शिशु, कुमार, युवापुरुषों की बस्ति में ) एक, दो, तीन अंगुल का प्रमाण होना जाहिये । नेत्र की मोटाई अग्रभागमें कनिष्ठांगुली, मध्यभाग में अना-.. मिका ( अंगूठेके पान के ) अंगुली, मूल में वाच की अंगुली के बराबर होना चाहिये। एवं श्रेष्ठ गोपुच्छ के समान आकृति से युक्त और अप्रभाग गोल होना चाहिये ॥४॥
बस्तिनवनिर्माण के योग्य पदार्थ व छिद्रप्रमाण । मुवर्णवरतारताम्रतरूनिर्मितान्यक्षता । न्यनूनगुलिकामुखान्यतिविपकमुद्गाढकी ! कलायगतिपातितात्मसुपिरानुधारान्विता-!
न्यमूनि परिकल्पयेदुदितलक्षनेत्राण्यलम् ॥ ५० ॥
१ द्विविध नय-द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक, द्रव्यकी विवक्षा करनेवाला नय द्रव्यार्थिक र एयायकी विवक्षः करनेवाला पर्यायार्थिक कहलाता है । २ रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चासिलोपर यथार्थ. विश्वास ( (Goc Conduct ) रखना.सम्यग्दर्शन तत्वोंके यथार्थ सान. (ivya Aloedge: ) सम्यग्ज्ञान, व हेयापाट्य रूपस तत्वाम विवेक जागृति होकर आचरण करना ( Cood Chaiactch: ) सम्यक्चारित्र कहलाता है ! ३ यह इसलिये बनायी जाती हैं कि सम्पूर्ण पिचकारी के पूर्ण भाग को गुदाके अंदर जाने से रोके ।।
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