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(१४६ )
कल्याणकारके
बस्तिकर्म के लिये अपात्र. अजीर्णभयशोकपाण्डुमदमूच्छनारोचक-। भ्रमश्वसनकासकुष्ठजठरार्तितृष्णान्वितान् ॥ गुदांकुरनिपीडितांस्तरुणगर्भिणीशोषिणः । प्रमेहकृशदुर्बलाग्निपरिवाधितोन्मादिनः ॥ ६२ ।। उरःक्षतयुतान्नरानधिकवातरोगादृते । बलक्षयविशोषितान्प्रतिदिनं प्रलापान्वितान् ॥ अतिस्तिमितगात्रगाढतरनिद्रया व्याकुलान् ।
संदैव परिवर्जयेदुदितबस्तिसत्कर्मणा ।। ६३ ॥ भावार्थ:--अजीर्ण, भय, शोक, पाण्डुरोग, मद, मूर्छा, अरुचि, भ्रम, श्वास, कास कुष्ठ, उदररोग, तृषा, बबासीर, अल्पवयस्क, गर्भिणी, क्षय, प्रमेह, कृश, दुर्बलाग्नि, उन्माद इत्यादिसे पीडित एवं प्रबल वातरोगसे रहित उरक्षत, शक्तिका ह्वास, शोष, प्रलाप, गात्रस्तब्ध व गाढ निद्रासे व्याकुलित व्यक्तियोंको, बस्ति कभी नहीं देनी चाहिये।। ६२ ।। ६३ ॥
वस्तिकर्म का फल। न चास्ति पवनामयप्रशमनक्रियान्या तथा । यथा निपुणबस्तिकर्म विदधाति सौख्यं नृणां । शरीरपरिवृद्धिमायुरनलं बलं वृष्यतां ।
वयस्थितिमरोगताममलवर्णमप्यावहेत् ॥ ६४ ॥ भावार्थ:-वात रोगोंके उपशमनके लिए ( अच्छी तरह से प्रयुक्त ) बस्तिकर्म से अधिक उपयोगी अन्य कोई क्रिया नहीं है । उचित रूपसे बस्तिकर्म किया जाय तो वातका शमन होकर रोगीको सुख होता है, शरीरमें शक्ति बढती है, आयुष्य भी बढता है। अग्नि तेज होजाती है । वाजीकरण होता है । वयस्थापन [ काफी आयु होनेपर भी, शरीर यौवनावस्था सदृश सुदृढ रहना ] होता है, निरोगता प्राप्त होजाती है । शरीरकी कांति भी बढती है ॥ ६४ ॥
वम्निकर्म का फल। बलेन गजमश्वमाशुगमनेन बुध्या गुरूं।। दिवाकरनिशाकरावपिच तेजमा कांतितः ॥
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