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महामयाधिकारः ।
कुष्ठमे दोषों की प्रधानता ।
ainaati परिसमेकं पित्तादतोऽन्यदवशिष्ट्यमिह त्रिदोष्यम् । देहेऽखिले ताडनभेदनत्व- संकोचनं महति कुष्ठपरे तथैकं ॥ ६५ ॥
भावार्थ: बातसे महाकुष्ट उत्पन्न होता है । पित्तसे परिसर्प व अन्य कुठ होते हैं। बाकी सब त्रिदोषसे उत्पन्न होते हैं । महाकुष्टसे युक्त रोगी के शरीर में ताडन भेदन, स्वक्संकोचन आदि लक्षण होते हैं ॥ ६५ ॥
एक विचर्चि विपादिका कुष्ठलक्षण | कृत्स्नं शरीरं घनकृष्णवर्ण । तोदान्वितं समुपयत्यरुणप्रभं वा ॥ दाः सदा पाणितले विचर्चिः । पादद्वये भवति सैव विपादिकारव्या ||६६ ||
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भावार्थ:-- जिसमें सारा शरीर काला वर्ण अथवा लाल होजाता है एवं शरीर में दर्द, सुई चुभने जैसी पीडा होती है वह भी एक कुष्ट हैं । जिससे करतलमें जलन उत्पन्न होती है उसे विचर्च कहते हैं. यदि दोनों पादतलोंमें जलन उत्पन्न करें तो उसे विपादिका कुछ कहते हैं ॥ ६६ ॥
परिसर्पविसर्पणकुष्ठलक्षण |
पित्तात्सदाहाः पिटकास्तीत्राः | स्रावान्वितास्सरुधिराः परिसर्पमाहुः । सोष्ण समंतात्परिसर्पते य- तीक्ष्णं विसपर्णमिति प्रवदति तज्ज्ञाः ॥ ६७॥
भावार्थ:- पित्त से जलनसहित, तत्रि पूय व रक्त निकलनेवाले पिटक जिसमें होते हैं उसे परिसर्प कहते हैं जो कि उष्ण रहता हैं और सारे शररिमें फैलता है । जो तक्ष्ण रहता है उसे विसर्पण कहते हैं ॥ ६७ ॥
किटिभ पामाकच्छुलक्षण |
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सत्रावसुस्निग्धमतीवकृष्णं सन्मण्डलं किटिभमाहुरतिप्रगल्भाः । ऊष्मान्वितं शोषयुतं सतीदं पाण्योस्तले प्रबलचर्मदलं वदति ॥ ६८ ॥ पामेति कंवलाः सपूयतीत्रो - । ष्मिका: पिटिकिकाः पदयुग्मजाताः ॥ पाण्योः स्फिचोः संभवति प्रभूता । - या सैव कच्छारित शास्त्रविदोपदिष्टा ॥ ६९ ॥..
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