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महामयाधिकारः ।
( २१५ )
कुंभे निधायो बहुमकार | धान्ये स्थितं मासपरिमाणम् ॥ तद्भक्षयेदक्षयरोगराजान । संक्षेपतः क्षपयितुं मनसाभिवांछन् । ११७ ॥
भावार्थ - अमलतास, भिलावा, मोखा, नीम, साडका फूल, केले की जड, अकौवा, तिलका गुच्छ इनका भग तैयार कर एक द्रोण [ १२||| सेर ४ तोला ] भरमको चार द्रोण पानीसे पकाकर शुद्ध कपडेसे छाने । जब लाल बूंदे उससे टपकती है उसमें एक आटक [३ सेर १६ तोला ] शुद्ध गुड, त्रिकटुक त्रिफल व बायुविडंग इनको प्रत्येक सोलह २ तोला प्रमाण चूर्णको डालकर साथमें लवंग, हरपाररेवडी, इलायचीको मिळावे उपयुक्त मकारसे संस्कृत घट डालकार धानसे भरे हुए गड्ढे में गाड़कर रखें फिर एक मास बाद निकालकर रोगी को पिलावें जिससे अनेक प्रकारके कुष्ट प्रमेह आदि रोगराज अत्यंत शीघ्र नष्ट होते हैं ।। ११५ ॥ ११६ ॥ ११७ ॥
खदिर चूर्ण |
सारद्रुमाणामपि सारचूर्ग । सारदुमस्वरसभावितशोषितं तत् ॥ साराधिकायुतं प्रपीतं । सारौषधं भवति सारमहामयन्नम् ॥ ११८ ॥
भावार्थ:-- खैर के वृक्षके सारभूत चूणको खैरके रससे भावना देकर फिर उसे सुखाचे, पुनः उस शुष्कचूर्णको खेरके वृक्षके कषाय के साथ मिलाकर पीत्रें तो कुष्ट रोगके लिए उत्तम औषध हैं अर्थात् उसको पनिसे कुष्ठ रोग दूर होजाता है ॥ ११८ ॥ तीक्ष्ण लोह भस्भ.
वीक्ष्णस्य लोहस्य तन्रनि यात्रा - ण्यालिप्य पंचलवणाम्लकृतीस्कल्कैः ॥ aver पुटेनैव सुगोमयाग्नौ । निर्वाप्य सारतरुसत्रिफलारसेन ॥ ११९ ॥ एवं पुनः पूर्ववदेव दवा । निर्वाप्य तद्वदिहषोडशवारमात्रम् ॥ पश्चात्पुनः खादिरकाष्टदग्ध । शांतं विचूर्ण्य पटानसृतमत्र कृत्वा ॥ १२० वच्चूर्णमाज्यान्वितशर्करांत । ज्ञात्वा बलं सततमेव निषेव्यमाणम् ॥ कुष्टप्लिहाशी दिकपाण्डुरोगान् । हत्वा वयोवलशरीरसुखं करोति ॥ १२१ ॥
भावार्थ:- तारण लोहके पतळे पतरोंको लेकर पंचलवण, [ सेंधानमक, काळा नमक व सामुद्रनमक बिनमक औद्भिद नमक ] आम्ल पदार्थ इनके कल्कोंसे उन्हे लेपन करें फिर उसे संपुटमें बंद करके कण्डेके अग्निने पृट देना चाहिए । फिर षांने निकालकर पुन: खरकी छाल व त्रिफला इन के काढेसे घोटकर घा लेपन कर पुनः सम्पुट बंद कर के पुट देना चाहिये । इस प्रकार सोलहवार पुट देना चाहिये । पुनः उसे खरकी लकडीके अभिसे पुट देना चाहिये । जब वह शांत हो जाम
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